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Saturday, September 8, 2012

Subhashitam (Pratinityam Subhashitam) -8








सुभाषित 259
दूर्जन: परिहर्तव्यो विद्ययाऽलङ्कॄतोऽपि सन् |
मणिना भूषित: सर्प: किमसौ भयङ्कर: //

दूर्जन ,चाहे वह विद्यासे विभूषित क्यू हो , उसे दूर रखना चाहिए |
मणि से आभूषित संाँप, क्या भयानक नहीं होता
सुभाषित 260
सुखमापतितं सेव्यं दु:खमापतितं तथा |
चक्रवत् परिवर्तन्ते दु:खानि सुखानि //
 Mahabharat
जीवन में आनेवाले सुख का आनंद ले, , तथा दु: का भी स्वीकार करें |
सुख और दु: तो एक के बाद एक चक्रवत आते रहते है //

अज्ञेभ्यो ग्रन्थिन: श्रेष्ठा: ग्रन्थिभ्यो धारिणो वरा: |
धारिभ्यो ज्ञानिन: श्रेष्ठा: ज्ञानिभ्यो व्यसायिन: //

निरक्षर लोगोंसे ग्रंथ पढनेवाले श्रेष्ठ |
उनसे भी अधिक ग्रंथ समझनेवाले श्रेष्ठ |
ग्रंथ समझनेवालोंसे भी अधिक आत्मज्ञानी श्रेष्ठ तथा उनसे भी अधिक ग्रंथ से प्रााप्त ज्ञान को उपयोग में लानेवाले श्रेष्ठ |
उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां शथा खे पक्षिणां गति: |
तथैव ज्ञानकर्मभ्यां जायते परमं पदम् //

योगवा| 1|1|7 जिस तरह दो पंखो के आधार से पक्षी आकाश में उंचा उड सकता है उसी तरह ज्ञान तथा कर्म से मनुष्य परब्रह्म को प्रााप्त कर सकता है |
सुभाषित 263
मनसा चिन्तितंकर्मं वचसा प्रकाशयेत् |
अन्यलक्षितकार्यस्य यत: सिद्धिर्न जायते //

मनमे की हुई कार्य की योजना दुसरों को बताये |
दूसरें को उसकी जानकारी होने से कार्य सफल नही होता |
गतेर्भंग: स्वरो हीनो गात्रे स्वेदो महद्भयम् |
मरणे यानि चि*नानि तानि चि*नानि याचके //

चलते समय संतुलन खोना,बोलते समय आवाज निकलना, पसीना छूटना और बहुत भयभीत होना यह मरनेवाले आदमी के लक्षण याचक के पास भी दिखते है |
शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा |
उहापोहोर्थ विज्ञानं तत्वज्ञानं धीगुणा: //

श्रवण करने की इच्छा, प्रात्यक्ष में श्रवण करना, ग्रहण करना, स्मरण में रखना, तर्र्र्कवितर्क, सिद्धान्त निश्चय, अर्थज्ञान तथा तत्वज्ञान ये बुद्धी के आठ अंग है |
द्वयक्षरस् तु भवेत् मॄत्युर् , त्रयक्षरमं ब्रा* शाश्वतम् |
'
मम' इति भवेत् मॄत्युर, 'नमम' इति शाश्वतम् //

महाभारत शांतिपर्व मॄत्यु यह दो अक्षरों का शब्द है तथा ब्रा* जो शाश्वत है वह तीन अक्षरोंका है |
'
मम' यह भी मॄत्यु के समानही दो अक्षरोंका शब्द है तथा 'नमम' यह शाश्वत ब्रा* की तरह तीन अक्षरोंका शब्द है |
सुभाषित 267
रविरपि दहति तादॄग् यादॄक् संदहति वालुकानिकर: अन्यस्माल्लब्धपदो नीच: प्रायेण दु:सहो भवति सुर्यप्रकाश से भी तपे हुए रेत का दाह अधिक होता है| (उसी तरह) दुसरों के सहाय्य से बडा हुआ नीच मनुष्य जादा उपद्रव देता है|
सुभाषित 268
क्वचिद्भूमौ शय्या क्वचिदपि पर्यङ्कशयनं
   क्वचिच्छाकाहारी क्वचिदपि शाल्योदनरुचि:
क्वचित्कन्थाधारी क्वचिदपि दिव्याम्बरधरो
   मनस्वी कार्यार्थी गणयति दु:खं सुखम्
कभी धरतीपे सोना कभी पलंगपे| कभी सब्जी खाना कभी रोटीचावल| कभी फटे हुए कपडे पहनना कभी बहौत कीमती कपडे पहनना| जो व्यक्ति अपने कार्यमे सर्वथा मग्न हो, उन्हे ऐसी बाहरी सुखदु:खोसे कोई मतलब नही होता|
सुभाषित 269
रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोस्म्यहम् रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर //
                                
राजशिरोमणि,,,,,,,, ,सदा विजयी होनेवाले रमापति राम की मै प्रार्थना करता हूँ |
राक्षसों का नि:पात करनेवाले राम को नमस्कार | 
 
राम के अलावा कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण नही , मै राम का दास हूँ | 
 
मेरा चित्त राममें लीन है , हे राम , मेरा  उद्धार करो //

 
   बुधकौशिक ऋषी विरचित रामरक्षास्तोत्र मे यह श्लोक है | 
 
इस श्लोक की विशेषता ये है कि , राम शब्द की सभी आठ विभक्तियों का इसमें प्रयोग किया है |
सुभाषित 270
मनोजवं मारूततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् |
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये //
                                 रामरक्षा स्तोत्र
रामरक्षामें से और एक श्लोक| मन और वायु के समान गतिमान , इन्द्र्र्र्रियों को जितने वाले जितेन्द्र्रिय , बुद्धिमानांे में वरिष्ठ , वानरों के मुख्य तथा श्रीराम के दूत अर्थात् , हनुमान को मै शरण जाता ^ूंं |
आचाराल्लभते ह्मयु: आचारादीप्सिता: प्राजा: |
आचाराद्धनमक्षय्यम् आचारो हन्त्यलक्षणम् //

मनु|4|156 अच्छे व्यवहार से दीर्घ आयु, श्रेष्ठ सन्तती, चिर समॄद्धी प्रााप्त होती है तथा अपने दोषोंका भी नाष होता है |
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् |
यत्रैतास्तु शोचन्ति ह्मप्रासीदन्ति) वर्धते तद्धि सर्वदा //

मनु| 3|57 जिस परिवार में स्त्री ह्ममाता, पत्नी, बहन, पुत्री) दु:खी रहती है उस परिवार का नाश होता है तथा जिस परिवार में वो सुखी रहती है वह परिवार समॄद्ध रहता है |
सुभाषित 273
अप्रकटीकॄतशक्ति: शक्तोपि जनस्तिरस्क्रियां लभते निवसन्नन्तर्दारुणि लङ्घ्यो *िनर्न तु ज्वलित: बलवान पुरुष का बल जब तक वह नही दिखाता है, उसके बलकी उपेक्षा होती है| लकडी से कोई नही डरता, मगर वही लकडी जब जलने लगती है, तब लोग उससे डरते है|
सुभाषित 274
विक्लवो वीर्यहीनो : दैवमनुवर्तते वीरा: संभावितात्मानो दैवं पर्युपासते जिसे अपने आप पे भरोसा नही है ऐसा बलहीन पुरुष नसीब के भरोसे रहता है| बलशाली और स्वाभिमानी पुरुष नसीब का खयाल नहीं करता| यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तव: |
तथा गॄहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमा: //

मनु| 3|77 जिस प्राकार इस जगत में सभी का जीवन वायू पर निर्भर है उसी प्राकार मनुष्य जीवन के सभी आश्रम गॄहस्ताश्रम पर निर्भर है |
नारीकेलसमाकारा _श्यन्तेपि हि सज्ज्ना: |
अन्ये बदरिकाकाश बहिरेव मनोहर: //

सज्ज्न लोग नारियल के समान होते हैर् परन्तू दुर्जन लोग बेर के समान होते हैर् केवल बाहर से मनोहर दिखते है पर अन्दर से तो यातनात्मक कठोर होते है |
सुभाषित 277
वॄत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमायाति याति अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वॄत्ततस्तु हतो हत: मनुष्य ने अपने शीलका संरक्षण प्रयत्नपुर्वक करना चाहिये (उसके धनका नही)| धन कमाया जा सकता है और गमाया भी जा सकता है| धनवान परन्तु शीलहीन मनुष्य मॄत के समान है|
सुभाषित 278
तर्काे प्रतिष्ठ: श्रुतयो विभिन्ना
      नैको मुनिर्यस्य वच: प्रमाणम्
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां
      महाजनो येन गत: पन्था:
तर्क बहौत चंचल होता है| हर श्रुति अलग आज्ञा देती है| हर ऋषी का मत भिन्न होता है, और कोइ भी एक ऋषी दुसरेसे जादा योग्य नही कह सकते| (ऐसेमे) महान व्यक्ती जिस पन्थ पे चलते है, वही सही रास्ता है|
सुभाषित 279
सुखं शेते सत्यवक्ता सुखं शेते मितव्ययी |
हितभुक् मितभुक् चैव तथैव विजितेन्द्रिय: //
                                   चरक
सत्य बोलनेवाला , मर्यादित खर्चा करनेवाला , हितकारक पदार्थ जरूरी प्रमाण मे खानेवाला , तथा जिसने इन्द्रियोंपर विजय पाया है , वह चैन की नींद सोता है |
परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ |
धर्मं चाप्यसुखोदर्कं लोकनिकॄष्टमेव //

मनु जो संपत्ती तथा मन की अभिलाषा धर्म के विपरित है उसका त्याग करना चाहिए |
इतना ही नही तो उस धर्म का भी त्याग करना अनुचित नही होगा जो धर्म भविष्य में संकट उत्पन्न कर सकता है तथा जो किसी समाज के प्राति प्रातिकुल सिद्ध हो सकता है |
श्रद्धाभक्तिसमायुक्ता नान्यकार्येषु लालसा: |
वाग्यता: शुचयश्चैव श्रोतार: पुण्यशालिन: //

योग्य श्रोता वही है जिन के पास श्रद्धा तथा भक्ति है, जिनका हेतू केवल ज्ञान प्रााप्त करना है और कुछ भी नही, तथा जिनका अपने वाणी पर नियंत्रण है और जो मन से शुद्ध है |





Om Tat Sat

(Continued ...)



(My humble salutations to  the lotus feet of Holy Sages of Hindu soil for the collection)

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