सुभाषित 282
भेदे गणा: विनश्येयु: भिन्नास्तु सुजया: परै: तस्मात् संघातयोगेन प्रयतेरन् गणा: सदा गणराज्यमे अगर एकता न हो तो वह नष्ट हो जाता है, क्योंकी एकता न होने पर शत्रु को उसे नष्ट करने मे आसानी होती है| इसिलिए गणराज्य हमेशा एक रहना चाहिये| सुभषित 283 परवाच्येषु निपुण: सर्वो भवति सर्वदा आत्मवाच्यं न जानीते जानन्नपि च मुह्मति हर एक मनुष्य दुसरेके दोष दिखानेमे प्रविण होता है| अपने खुदके दोष या तो उसे नजर नही आते, या फिर वह उस दोषोंको अनदेखी करता है| सुभषित 284 गौरवं प्राप्यते दानात् न तु वित्तस्य संचयात् |
स्थिति: उच्चै: पयोदानां पयोधीनां अध: स्थिति: //
दानसे गौरव प्राप्त होता है ,वित्तके संचयसे नहीं |
जल देनेवाले बादलोंका स्थान उच्च है , बल्कि जलका समुच्चय करनेवाले सागर का स्थान नीचे है |
स्थिति: उच्चै: पयोदानां पयोधीनां अध: स्थिति: //
दानसे गौरव प्राप्त होता है ,वित्तके संचयसे नहीं |
जल देनेवाले बादलोंका स्थान उच्च है , बल्कि जलका समुच्चय करनेवाले सागर का स्थान नीचे है |
सुभषित 285 न भूतपूर्व न कदापि वार्ता हेम्न: कुरङ्ग: न कदापि दॄष्ट: |
तथापि तॄष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धि: //
न पहले कभी सुवर्णमॄग के बारे में सुना ,न कभी देखा फिरभी रघुनन्दन राम को लोभ हुआ |
सचमुच , विनाशकाले विपरीतबुदधी |
तथापि तॄष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धि: //
न पहले कभी सुवर्णमॄग के बारे में सुना ,न कभी देखा फिरभी रघुनन्दन राम को लोभ हुआ |
सचमुच , विनाशकाले विपरीतबुदधी |
नारून्तुद: स्यादार्तोपि न परद्रोहकर्मधी: |
ययास्योद्विजते वाचा नालोक्यां तामुदीरयेत् //
विदूरनीति
ययास्योद्विजते वाचा नालोक्यां तामुदीरयेत् //
विदूरनीति
दूसरोंसे दु:ख मिलने पर भी वह शांत रहे , विचार से या कॄती से भी वह दूसरों को दु:ख न दे , उस के मुख से ऐसी वाणी न निकले जिससे दूसरे दु:खी हो , सारांश में वह ऐसा कोइ काम न करे जिससे की वो स्वर्ग से वंचित हो |
कर्पूरधूलिरचितालवाल: कस्तूरिकापंकनिमग्ननाल:, गंगाजलै: सिक्तसमूलवाल: स्वीयं गुणं मुञ्चति किं पलाण्डु:
कर्पूरधूलिरचितालवाल: कस्तूरिकापंकनिमग्ननाल:, गंगाजलै: सिक्तसमूलवाल: स्वीयं गुणं मुञ्चति किं पलाण्डु:
प्याज के पौधेके लिए आप कपूरकी क्यारी बनाओे, कस्तूरिका उपयोग मि+ी की जगह करो, अथवा उसके जडपे गंगाजल डालो वह अपनी दुर्गंध नही छोडेगा |
मनुष्य का स्वभाव बदलना बहुत कठिन है |
मनुष्य का स्वभाव बदलना बहुत कठिन है |
सुभाषित 287
जलबिन्दुनिपातेन क्रमश: पूर्यते घट: स हेतु: सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च
जिस तरह बुन्द बुन्द पानीसे घडा भर जातहै, उसी तरह विद्या, धर्म, और धन का संचय होत है| सारांश, छोटे मात्रा मे होने पर भी इन तिनोंपे दुर्लक्ष नही करना चाहिये|
सुभाषित 288
सेवक: स्वामिनं द्वेष्टि कॄपणं परुषाक्षरम् आत्मानं किं स न द्वेष्टि सेव्यासेव्यं न वेत्ति य:
अगर मालिक कंजुस हो, और कठोर बोलने वाला हो, तो सेवक उसका द्वेश करता है|किसकी सेवा करनी चाहिये किसकी नही ये जिसे नही समझता,वह अपने आप का द्वेश क्यों नही करताÆ खुदको जो कष्ट होते है उसके लिए बाह्म कारण ढुंडना यह मनुष्य स्वभाव है| अपने उपर आने वाले आपत्ति का कारण जादातर अपने आपमेही ढुंढा जा सकता है|
सुभाषित 289
ऐक्यं बलं समाजस्य तदभावे स दुर्बल: तस्मात ऐक्यं प्रशंसन्ति दॄढं राष्ट्र हितैषिण:
एकता समाजका बल है , एकताहीन समाज दुर्बल है| इसलिए , राष्ट्रहित सोचनेवाले एकता को बढावा देते है |
सुभाषित 290
का त्वं बाले कान्चनमाला कस्या: पुत्री कनकलताया: //
हस्ते किं ते तालीपत्रं का वा रेखा क ख ग घ //
हस्ते किं ते तालीपत्रं का वा रेखा क ख ग घ //
बाला , तुम कौन हो ऋ कान्चनमाला किनकी पुत्री ? कनकलताकी हाथ में क्या है ? तालीपत्र क्या लिखा है ? क ख ग घ
अप्यब्धिपानान्महत: सुमेरून्मूलनादपि |
अपि वहन्यशनात् साधो विषमश्चित्तनिग्रह: //
अपने स्वयं के मन का स्वामी होना यह संपूर्ण सागर के जल को पिना, मेरू पर्वत को उखाडना या फिर अग्नी को खाना ऐसे असंभव बातों से भी कठिन है |
अधीत्य चतुरो वेदान् सर्वशास्त्राण्यनेकश: |
ब्रम्ह्मतत्वं न जानाति दर्वी सूपरसं यथा //
अपि वहन्यशनात् साधो विषमश्चित्तनिग्रह: //
अपने स्वयं के मन का स्वामी होना यह संपूर्ण सागर के जल को पिना, मेरू पर्वत को उखाडना या फिर अग्नी को खाना ऐसे असंभव बातों से भी कठिन है |
अधीत्य चतुरो वेदान् सर्वशास्त्राण्यनेकश: |
ब्रम्ह्मतत्वं न जानाति दर्वी सूपरसं यथा //
सिर्फ वेद तथा शास्त्रों का बार बार अध्ययन करनेसे किसी को ब्राह्मतत्व का अर्थ नही होता |
जैसे जिस चमच से खाद्य पदार्थ परोसा जाता है उसे उस खाद्य पदार्थ का गुण तथा सुगंध प्रााप्त नही होता |
जैसे जिस चमच से खाद्य पदार्थ परोसा जाता है उसे उस खाद्य पदार्थ का गुण तथा सुगंध प्रााप्त नही होता |
यस्य चित्तं निर्विषयं )दयं यस्य शीतलम् |
तस्य मित्रं जगत्सर्वं तस्य मुक्ति: करस्थिता |
जिस का मन इंद्रियोंके वश में नही ह,ै जिस का )दय शांत है, संपूर्ण विश्व जिस का मित्र है ऐसे मनुष्य को मुक्ति सहजता से प्रााप्त होती है |
तस्य मित्रं जगत्सर्वं तस्य मुक्ति: करस्थिता |
जिस का मन इंद्रियोंके वश में नही ह,ै जिस का )दय शांत है, संपूर्ण विश्व जिस का मित्र है ऐसे मनुष्य को मुक्ति सहजता से प्रााप्त होती है |
सुभाषित 294
अज्ञान तिमिरांधस्य ज्ञानांजन शलाकया चक्षुरुन्मिलितं येन तस्मै श्री गुरवे नम:
अज्ञान के अंध:कारसे अन्धे हुए मनुष्यकी आंखे ज्ञानरुप अंजनसे खोलनेवाले गुरुको मेरा प्रणाम|
सुभाषित 295
क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जन: किं करिष्यति |
अतॄणे पतितो वन्हि: स्वयमेवोपशाम्यति //
क्षमारूपी शस्त्र जिसके हाथ में हो , उसे दुर्जन क्या कर सकता है ? अग्नि , जब किसी जगह पर गिरता है जहाँ घास न हो , अपने आप बुझ जाता है |
अतॄणे पतितो वन्हि: स्वयमेवोपशाम्यति //
क्षमारूपी शस्त्र जिसके हाथ में हो , उसे दुर्जन क्या कर सकता है ? अग्नि , जब किसी जगह पर गिरता है जहाँ घास न हो , अपने आप बुझ जाता है |
सुभाषित 296
ग्रन्थानभ्यस्य मेघावी ज्ञान विज्ञानतत्पर: |
पलालमिव धान्यार्थी त्यजेत् सर्वमशेषत: //
बुद्धीमान मनुष्य जिसे ज्ञान प्रााप्त करने की तीव्र इच्छा है वह ग्रन्थो में जो महत्वपूर्ण विषय है उसे पढकर उस ग्रन्थका सार जान लेता है तथा उस ग्रन्थ के अनावष्यक बातों को छोड देता है उसी तरह जैसे किसान केवल धान्य उठाता है |
पलालमिव धान्यार्थी त्यजेत् सर्वमशेषत: //
बुद्धीमान मनुष्य जिसे ज्ञान प्रााप्त करने की तीव्र इच्छा है वह ग्रन्थो में जो महत्वपूर्ण विषय है उसे पढकर उस ग्रन्थका सार जान लेता है तथा उस ग्रन्थ के अनावष्यक बातों को छोड देता है उसी तरह जैसे किसान केवल धान्य उठाता है |
सुभाषित 297
असूयैकपदं मॄत्यु: अतिवाद: श्रियो वध: |
अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्याया: शत्रवस्त्रय: //
अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्याया: शत्रवस्त्रय: //
विद्यार्थी के संबंध में द्वेश यह मॄत्यु के समान है |
अनावश्यक बाते करने से धन का नाश होता है |
सेवा करने की मनोवॄत्ती का आभाव, जल्दबाजी तथा स्वयं की प्राशंसा स्वयं करना यह तीन बाते विद्या ग्रहण करने के शत्रू है |
अनावश्यक बाते करने से धन का नाश होता है |
सेवा करने की मनोवॄत्ती का आभाव, जल्दबाजी तथा स्वयं की प्राशंसा स्वयं करना यह तीन बाते विद्या ग्रहण करने के शत्रू है |
सुभाषित 298
नालसा: प्राप्नुवन्त्यर्थान न शठा न च मायिन: न च लोकरवाद्भीता न च शश्वत्प्रतीक्षिण:
आलसी मनुष्य कभीभी धन नही कमा सकता (वह अपने जीवनमे सफल नही हो सकता)| दुसरों की बुराई चाहने वाला तथा उनकी वंचना करने वाला, लोग क्या कहेंगे यह भय रखनेवाला, और अच्छे मौके के अपेक्षामे कॄतीहीन रहनेवाला भी धन नही कमा सकता|
सुभाषित 299
दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये संचयो न कर्तव्य: पश्येह मधुकरीणां संचितार्थ हरन्त्यन्ये दान कीजिए या उपभोग लीजिए , धन का संचय न करें देखिए , मधुमक्खी का संचय कोर्इ और ले जाता है //
सुभाषित 300
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावॄता , या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना |
या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभॄतिभिर्देवै: सदा वन्दिता , सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा //
या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभॄतिभिर्देवै: सदा वन्दिता , सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा //
जो कुन्दपुष्प ,,, चंद्रमा या ,, जलबिन्दुओं के हार के समान धवल है , जिसने शुभ्रवस्त्र परिधान किए है , जिसके हाथ वीणा के दण्डसे सुशोभित है और श्वेतपद्म जिसका आसन है, जिसे ब्रह्मा , विष्णु , महेश आदि सदा वन्दन करते है , बुद्धी की जडता पूर्णत: नष्ट करनेवाली ऐसी भगवती सरस्वती मेरा रक्षण करें |
सुभाषित 301
कस्यचित् किमपि नो हरणीयं मर्मवाक्यमपि नोच्चरणीयम् श्रीपते: पदयुगं स्मरणीयं लीलया भवजलं तरणीयम्
दुसरोंकी कोई वस्तु कभी चुरानी नही चाहिए| दुसरेके मर्मस्थानपे आघात हो ऐसा कभी बोलना नही चाहिए| श्री विष्णु के चरणका स्मरण करना चाहिए| ऐसा करनेसे भवसागर पार करना सरल हो जाता है|
सुभाषित 302
बुधाग्रे न गुणान् ब्राूयात् साधु वेत्ति यत: स्वयम् मूर्खाग्रेपि च न ब्राूयाद्धुधप्रोक्तं न वेत्ति स:
अपने गुण बुद्धीमान मनुष्य को न बताए| वह उन्हे अपने आप जान लेगा| अपने गुण बु_ु मनुष्य को भी न बताए| वह उन्हे समझ नही सकेगा|
सुभाषित 303
के शवं पतितं दॄष्ट्वा पाण्डवा हर्षनिर्भरा: रूदन्ति कौरवा: सर्वे हा हा के शव के शव रूकिये , यदि आपने इस श्लोक का अर्थ समझने का प्रयास किया है ! संस्कॄतमे शब्दों का सही अर्थ समझना अत्यंत आवश्यक है !! यहाँ , के और शव अलग अलग शब्द है |
˜क का अर्थ है पानी ह्म कर्इ अर्थाे में से एक ) इसलिए 'के' मतलब ˜पानी में| पाण्डव का एक अर्थ ˜मछली और कौरव का एक अर्थ ˜कौआ भी होता है| इसलिए , इस श्लोक का अर्थ है ,
˜क का अर्थ है पानी ह्म कर्इ अर्थाे में से एक ) इसलिए 'के' मतलब ˜पानी में| पाण्डव का एक अर्थ ˜मछली और कौरव का एक अर्थ ˜कौआ भी होता है| इसलिए , इस श्लोक का अर्थ है ,
पानी में गिरा शव देखकर मछलीयाँं हर्षनिर्भर हुर्इ ह्मबल्कि) सब कौए ह्मदुखसे) चिल्लाने लगे ˜अरेरे पानी में शव'|
सुभाषित 304
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानत: |
उत्पथं प्रातिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम् //
महाभारत
उत्पथं प्रातिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम् //
महाभारत
आदरणीय तथा श्रेष्ठ व्यक्ति यदी व्यक्तीगत अभिमान के कारण धर्म और अधर्म में भेद करना भूल गए या फिर गलत मार्ग पर चले तो ऐसे व्यक्ति को शासन करना न्याय ही है |
शुभाषित 305
यद्यद् राघव संयाति महाजनसपर्यया |
दिनं तदेव सालोकं श,,,,,,,ेषास्त्वन्धदिनालया: //
हे! रघु वंशके वंशज , श्रेष्ठ तथा सज्जनों की सेवा में व्यतीत हुवा दिन ही प्रकाशमान होता है |
अन्य सभी दिन सूर्य प्राकाश रहते हुए भी अंधकार के समान प्रातीत होते है |
दिनं तदेव सालोकं श,,,,,,,ेषास्त्वन्धदिनालया: //
हे! रघु वंशके वंशज , श्रेष्ठ तथा सज्जनों की सेवा में व्यतीत हुवा दिन ही प्रकाशमान होता है |
अन्य सभी दिन सूर्य प्राकाश रहते हुए भी अंधकार के समान प्रातीत होते है |
सुभाषित 306
यमो वैवस्वतो राजा यस्तवैष )दि स्थित: |
तेन चेदविवादस्ते मा गंगा मा कुरून् व्राज //
यदि विवस्वत के पुत्र भगवान यम आपाके मन म्ंो बसते है तथा उनसे आपका मत भेद नही है तो आपको अपने पाप धोने परम पवित्र गंगा नदी के तट पर या कुरूओंके भूमी को जाने की कोइ आवश्यकता नही है |
तेन चेदविवादस्ते मा गंगा मा कुरून् व्राज //
यदि विवस्वत के पुत्र भगवान यम आपाके मन म्ंो बसते है तथा उनसे आपका मत भेद नही है तो आपको अपने पाप धोने परम पवित्र गंगा नदी के तट पर या कुरूओंके भूमी को जाने की कोइ आवश्यकता नही है |
सुभाषित 307
किम् कुलेन विशालेन विद्याहीनस्य देहिन: अकुलीनोऽपि विद्यावान् देवैरपि सुपूज्यते
अच्छे कुलमे जन्मी हुई व्यक्ति अगर ज्ञानी न हो, तो (उसके अच्छे कुल का) क्या फायदा| ज्ञानी व्यक्ति अगर कुलीन न हो, तो भी, इश्वर भी उसकी पूजा करते है|
सुभाषित 308
पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किम् |
नोलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम् |
धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम् |
यत् पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं क: क्षम: |
|
करीरवॄक्ष ह्म मरूभूमीमे आनेवाला पर्णहीन वॄक्ष ) को ह्मवसंतऋतू मे भी ) पन्ने नहीं आते है इसमें वसन्त का क्या दोष |
उल्लू को दिन में नही दिखार्इ देता इसमें सूर्य का क्या दोष |
ह्मजल ) धाराए चातक के चोंच में नहीं गिरी तो वह बादल का दोष कैसे |
अर्थात् , विधी ने जो माथे पर लिखा है , उसे कौन बदल सकता है |
नोलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम् |
धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम् |
यत् पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं क: क्षम: |
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करीरवॄक्ष ह्म मरूभूमीमे आनेवाला पर्णहीन वॄक्ष ) को ह्मवसंतऋतू मे भी ) पन्ने नहीं आते है इसमें वसन्त का क्या दोष |
उल्लू को दिन में नही दिखार्इ देता इसमें सूर्य का क्या दोष |
ह्मजल ) धाराए चातक के चोंच में नहीं गिरी तो वह बादल का दोष कैसे |
अर्थात् , विधी ने जो माथे पर लिखा है , उसे कौन बदल सकता है |
सुभाषित 309
यथा हि पथिक: कश्चित् छायामाश्रित्य तिष्ठति |
विश्रम्य च पुनर्गच्छेत् तद्वद् भूतसमागम: //
महाभारत
विश्रम्य च पुनर्गच्छेत् तद्वद् भूतसमागम: //
महाभारत
जिस प्राकार यात्रा करनेवाला पथिक थोडे समय वॄक्ष के नीचे विश्राम करने के बाद आगे निकल जाता है उसी समान अपने जीवन में अन्य मनुष्य थोडे समय के लिए उस वॄक्ष की तरह छांव देते है और फिर उनका साथ छूट जाता है |
सुभाषित 310
न व्याधिर्न विषं नापत् तथा नाधिश्च भूतले खेदाय स्वशरीरस्थं मौख्र्यमेकम् यथा नॄणाम्
इस जगतमे स्वयंकी मूर्खताही सब दु:खोंकी जड होति है| कोई व्याधि, विष, कोई आपत्ति तथा मानसिक व्याधि से उतना दु:ख नही होता|
Om
Tat Sat
(Continued ...)
(My humble salutations to the lotus feet of Holy Sages of Hindu soil for
the collection)
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