सुभाषित 311
न वध्यन्ते ह्मविश्वस्ता बलिभिर्दुर्बला अपि विश्वस्तास्त्वेव वध्यन्ते बलिनो दुर्बलैरपि
दुर्बल मनुष्य विश्वसनीय न होने पर भी बलवान मनुष्य उसे मारता नही है| बलवान पुरुष विश्वसनीय होने पर भी दुर्बल मनुष्य उसे मारता ही है|
शुभाषित 312
वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये |
रक्षन्ति पुण्यानि पुराकॄतानि //
रक्षन्ति पुण्यानि पुराकॄतानि //
जब हम जंगल के मध्य में या फिर रणक्षेत्र के मध्य में या फिर जल में या फिर अग्नी में फस जाते है तब अपने भूतकाल के अच्छे कर्म ही हम को बचाते है |
सुभाषित 313
यदीच्छसि वशीकर्तुंं जगदेकेन कर्मणा |
परापवादससेभ्यो गां चरन्तीं निवारय //
परापवादससेभ्यो गां चरन्तीं निवारय //
यदी किसी एक काम से आपको जग को वश करना है तो परनिन्दारूपी धान के खेत में चरनेवाली जिव्हारूपी गाय को वहाँं से हकाल दो अर्थात दुसरे की निन्दा कभी न करो| संस्कॄत मे गौ: शब्द के अनेक अर्थ है| ; सुभाषितकार ने गौ: के दो अर्थ ह्मइन्द्रिय जिव्हेन्द्रिय तथा गाय) लेकर शब्द का सुन्दर उपयोग किया है|
सुभाषित 314
गुरूशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा |
अथवा विद्यया विद्या चतुर्थो न उपलभ्यते //
अथवा विद्यया विद्या चतुर्थो न उपलभ्यते //
गुरूकी सेवा करने से या भरपूर धन देने से विद्या प्राप्त कर सकते है अथवा एक विद्या का दुसरी विद्या के साथ विनिमय कर सकते है ,ह्मविद्या प्राप्त करने का) चौथा कोर्इ रास्ता उपलब्ध नहीं है |
सुभाषित 315
यथा खनन् खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति तथा गुरुगतं विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति
भूमिमे पहार से गड्डा करनेवाले को जिस तरह पानी मिलता है, उसी तरह गुरु की सेवा करनेवालेको विद्या प्राप्त होती है|
सुभाषित 316
यदि सन्ति गुणा: पुंसां विकसन्त्येव ते स्वयम् न हि कस्तूरिकामोद: शपथेन विभाव्यते
मनुष्यके गुण अपने आप फैलते है, बताने नही पडते| (जिसतरह), कस्तूरी का गंध सिद्ध नही करना पडता|
शुभाषित 317
यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ |
समेत्य च व्यपेयातां तद्वद् भूतसमागम: //
महाभारत
समेत्य च व्यपेयातां तद्वद् भूतसमागम: //
महाभारत
जैसे लकडी के दो टुकडे विशाल सागर में मिलते है तथा एक ही लहर से अलग हो जाते है उसी तरह दो व्य्क्ति कुछ क्षणों के लिए सहवास में आते है फिर कालचक्र की गती से अलग हो जाते है |
सुभाषित 318
यस्यास्ति वित्तं स नर:कुलीन: , स पण्डित: स श्रुतवान् गुणज्ञ: |
स एव वक्ता स च दर्शनीय: , सर्वे गुणा: काञ्चनमाश्रयन्ते //
स एव वक्ता स च दर्शनीय: , सर्वे गुणा: काञ्चनमाश्रयन्ते //
वही पण्डित , बहुश्रुत , गुणोंकी पहचान रखनेवाला , वक्ता तथा दर्शनीय समझा जाता है| अर्थात , सभी गुण धन का आश्रय लेते है|
सुभाषित 319
यद्धात्रा निजभालपट्टलिखितं स्तोकं महद् वा धनम् तत् प्राप्नोति मरूस्थलेऽपि नितरां मेरौ ततो नाधिकम् तद्धीरो भव , वित्तवत्सु कॄपणां वॄत्तिं वॄथा मा कॄथा: कूपे पश्य पयोनिधावपि घटो गॄह्णाति तुल्यं पय:
विधाताने ललाटपर जो थोडा या अधिक धन लिखा है , वो मरूभूमी मे भी मिलेगा| मेरू पर्वत पर जाकर भी उससे ज्यादा नहीं मिलेगा| धीरज रखो , अमीरोंके सामने दैन्य ना दिखाओ , देखो यह गागर कुआँ या सागर में से उतनाही पानी ले सकती है
सुभाषित 320
नाम्भोधिरर्थितामेति सदाम्भोभिश्च पूर्यते |
आत्मा तु पात्रतां नेय: पात्रमायान्ति संपद: //
विदुरनीति सागर कभी जल के लिए भिक्षा नही मांगता फिर भी वह सदैव जल से भरा रहता है |
यदि हम अपने आप को योग्य बना दे तो सब साधन स्वयंही अपने पास चली आएंगी |
आत्मा तु पात्रतां नेय: पात्रमायान्ति संपद: //
विदुरनीति सागर कभी जल के लिए भिक्षा नही मांगता फिर भी वह सदैव जल से भरा रहता है |
यदि हम अपने आप को योग्य बना दे तो सब साधन स्वयंही अपने पास चली आएंगी |
सुभाषित 321
बहीव्मपि संहितां भाषमाण: न तत्करोति भवति नर: प्रामत्त: |
गोप इव गा गणयन् परेषां न भाग्यवान् श्रामण्यस्य भवति //
धम्मपद 2|19 यदि मनुष्य बहूत से धार्मिक श्लोक स्मरण में भी रखे पर उस प्राकार आचरण न करे तो उस का कोइ लाभ नही है |
जैसे गाय चरानेवाला गौवोंकी संख्या तो जानता है पर वह उस का मालिक नही रहता |
गोप इव गा गणयन् परेषां न भाग्यवान् श्रामण्यस्य भवति //
धम्मपद 2|19 यदि मनुष्य बहूत से धार्मिक श्लोक स्मरण में भी रखे पर उस प्राकार आचरण न करे तो उस का कोइ लाभ नही है |
जैसे गाय चरानेवाला गौवोंकी संख्या तो जानता है पर वह उस का मालिक नही रहता |
सुभाषित 322
वने रणे Xात्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा |
सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुरा कॄतानि //
सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुरा कॄतानि //
अरण्यमे रणभूमी में , शत्रुसमुदाय में , जल , अग्नि , महासागर या पर्वतशिखरपर तथा सोते हुए , उन्मत्त स्थिती में या प्रतिकूल परिस्थिती में मनुष्यके पूर्वपुण्य उसकी रक्षा करतें हैं |
सुभाषित 323
न कालो दण्डमुद्यम्य शिर: कॄन्तति कस्यचित् |
कालस्य बलमेतावत् विपरीतार्थदर्शनम् //
महाभारत 2|81|11 काल किसी का शस्त्र से शिरच्छेद नही करता पर वह बुद्धीभेद करता है जिससे मनुष्य को गलत रास्ता ही सही लगता है और वह अपने विनाश की ओर बढता है |
बुद्धीभेद ही काल का बल है |
कालस्य बलमेतावत् विपरीतार्थदर्शनम् //
महाभारत 2|81|11 काल किसी का शस्त्र से शिरच्छेद नही करता पर वह बुद्धीभेद करता है जिससे मनुष्य को गलत रास्ता ही सही लगता है और वह अपने विनाश की ओर बढता है |
बुद्धीभेद ही काल का बल है |
सुभाषित 324
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् |
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते //
हम सब एक साथ चले; एक साथ बोले; हमारे मन एक हो |
प्रााचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा इसी कारण वे वंदनीय है |
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते //
हम सब एक साथ चले; एक साथ बोले; हमारे मन एक हो |
प्रााचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा इसी कारण वे वंदनीय है |
सुभाषित 325
मध्विव मन्यते बालो यावत् पापं न पच्यते |
यदा च पच्यते पापं दु:खं चाथ निगच्छति धम्मपद 5|6 जब तक पाप संपूर्ण रूप से फलित नही होता तब तक वह पाप कर्म मधुर लगता है |
परन्तु पूर्णत: फलित होने के पश्च्यात मनुष्य को उसके कटु परिणाम सहन करने ही पडते है |
यदा च पच्यते पापं दु:खं चाथ निगच्छति धम्मपद 5|6 जब तक पाप संपूर्ण रूप से फलित नही होता तब तक वह पाप कर्म मधुर लगता है |
परन्तु पूर्णत: फलित होने के पश्च्यात मनुष्य को उसके कटु परिणाम सहन करने ही पडते है |
सुभाषित 326
तावज्जितेन्द्रियो न स्याद् विजितान्येन्द्रिय: पुमान् |
न जयेद् रसनं यावद् जितं सर्वं जिते रसे //
श्रीमद्भागवत 11|8|21
न जयेद् रसनं यावद् जितं सर्वं जिते रसे //
श्रीमद्भागवत 11|8|21
जब तक मनुष्य अपने विविध आहार के उपर स्वनियंत्रण नही रखता तब तक उसने सब इन्द्रियों के उपर विजय पायी है ऐसा नही बोल सकते |
आहार के उपर स्वनियंत्रण यही सब से आवश्यक बात है |
आहार के उपर स्वनियंत्रण यही सब से आवश्यक बात है |
सुभाषित 327
द्वावेव चिन्तया मुक्तौ परमानन्द आप्लुतौ |
यो विमुग्धो जडो बालो यो गुणेभ्य: परं गत: //
भागवत 11|9|4
यो विमुग्धो जडो बालो यो गुणेभ्य: परं गत: //
भागवत 11|9|4
इस जगत में केवल दो प्राकार के लोग परमआनन्द का अनुभव कर सकते है |
एक है नन्हासा बालक तथा दुसरा है परम योगी |
एक है नन्हासा बालक तथा दुसरा है परम योगी |
सुभाषित 328
न तथा तप्यते विद्ध: पुमान् बाणै: सुमर्मगै: |
यथा तुदन्ति मर्मस्था ह्मसतां पुरूषेषव: //
भागवत 11|23|3
यथा तुदन्ति मर्मस्था ह्मसतां पुरूषेषव: //
भागवत 11|23|3
मनुष्य के शरीर में लगे बाण उतनी वेदना नही देते जितनी वेदना कठोर शब्द देते है |
सुभाषित 329
न कश्चिदपि जानाति किं कस्य श्वो भविष्यति अत: श्व: करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान //
कल किसका क्या होगा कोर्इ नहीं जानता , इसलिए बुद्धिमान लोग कल का काम आजही करते है |
कल किसका क्या होगा कोर्इ नहीं जानता , इसलिए बुद्धिमान लोग कल का काम आजही करते है |
सुभाषित 330
वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं दुकूलै: सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेष: |
स तु भवति दरिद्रो यस्य तॄष्णा विशाला मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान को दरिद्र: //
एक योगी राजा से कहता है , œ हम यहाँ है ह्म आश्रममे ) वल्कलवस्त्रसे भी सन्तुष्ट , जब कि तुमने अपने रेशीमवस्त्र पहने है |
हम उतने ही सन्तुष्ट है , कोर्इ भेद नही है |
जिसकी पिपासा अधिक , वही दरिद्री है |
जब की मन में सन्तुष्टता है , दरिद्री कौन और धनवान कौन ?
स तु भवति दरिद्रो यस्य तॄष्णा विशाला मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान को दरिद्र: //
एक योगी राजा से कहता है , œ हम यहाँ है ह्म आश्रममे ) वल्कलवस्त्रसे भी सन्तुष्ट , जब कि तुमने अपने रेशीमवस्त्र पहने है |
हम उतने ही सन्तुष्ट है , कोर्इ भेद नही है |
जिसकी पिपासा अधिक , वही दरिद्री है |
जब की मन में सन्तुष्टता है , दरिद्री कौन और धनवान कौन ?
सुभाषित 331
न ह्मम्मयानि तीर्थानि न देवा मॄच्छिलामया: |
ते पुनन्त्युरूकालेन दर्शनादेव साधव: //
भागवत 10|48|31 नदीयों का पवित्र जल या भगवान की मूर्ती के दर्शन मात्र से भक्त का मन शुद्ध नही होता अपितु लंबे समय ध्यान लगाने के बाद ही अंत:करण शुद्ध होता है |
परन्तू संतों के केवल दर्शन मात्र से ही हम पवित्र हो जाते है |
ते पुनन्त्युरूकालेन दर्शनादेव साधव: //
भागवत 10|48|31 नदीयों का पवित्र जल या भगवान की मूर्ती के दर्शन मात्र से भक्त का मन शुद्ध नही होता अपितु लंबे समय ध्यान लगाने के बाद ही अंत:करण शुद्ध होता है |
परन्तू संतों के केवल दर्शन मात्र से ही हम पवित्र हो जाते है |
सुभाषित 332
ब्राम्हण: सम_क् शान्तो दीनानां समुपेक्षक: |
स्त्रवते ब्रम्ह तस्यापि भिन्नभाण्डात् पयो यथा //
भागवत 4|14|41 समदॄष्टी के अभाव के कारण यदि ब्राम्हण किसी पिडीत व्यक्ति की सहायता नही करता तो उसका ब्रम्हत्व समाप्त हो गया ऐसा समझना चाहिए |
स्त्रवते ब्रम्ह तस्यापि भिन्नभाण्डात् पयो यथा //
भागवत 4|14|41 समदॄष्टी के अभाव के कारण यदि ब्राम्हण किसी पिडीत व्यक्ति की सहायता नही करता तो उसका ब्रम्हत्व समाप्त हो गया ऐसा समझना चाहिए |
सुभाषित 333
दैवमेवेह चेत् कतर्ॄ पुंस: किमिव चेष्टया |
स्नानदानासनोच्चारान् दैवमेव करिष्यति //
अगर नसीबही आपका कार्य करनेवाला है तो आपको कुछ करनेकी क्या आवष्यकता है ? स्नान दानधर्म बैठना बोलना यह सभी आपका नसीबही करेगा !
स्नानदानासनोच्चारान् दैवमेव करिष्यति //
अगर नसीबही आपका कार्य करनेवाला है तो आपको कुछ करनेकी क्या आवष्यकता है ? स्नान दानधर्म बैठना बोलना यह सभी आपका नसीबही करेगा !
सुभाषित 334
कार्यमण्वपि काले तु कॄतमेत्युपकारताम् |
महदप्युपकारोऽपि रिक्ततामेत्यकालत: //
महदप्युपकारोऽपि रिक्ततामेत्यकालत: //
किसीका छोटासाभी काम अगर सही समयपे करे तो वह उपकारक होता है |
परंतु अगर गलत समयपे करे तो बहुत बडा काम भी किसी काम का नही होता है |
परंतु अगर गलत समयपे करे तो बहुत बडा काम भी किसी काम का नही होता है |
सुभाषित 335
यो यमर्थं प्रार्थयते यदर्थं घटतेऽपि च |
अवश्यं तदवाप्नोति न चेच्छ्रान्तो निवर्तते //
अवश्यं तदवाप्नोति न चेच्छ्रान्तो निवर्तते //
कोर्इ मनुष्य अगर कुछ चाहता है और उसकेलिए अथक प्रयत्न करता है तो वह उसे प्राप्त करकेही रहता है |
सुभाषित 336
यदजर््िातं प्राणहरै: परिश्रमै: मॄतस्य तद् वै विभजन्ति रिक्थिन: |
कॄतं च यद् दुष्कॄतमर्थलिप्सया तदेव दोषापहतस्य कौतुकम् //
कॄतं च यद् दुष्कॄतमर्थलिप्सया तदेव दोषापहतस्य कौतुकम् //
प्राणान्तिक परिश्रमों से प्राप्त किया हुआ मॄत आदमी का जो धन होता है , उसके वारिस वह आपसमें बाँंट लेते है |
उस धन के लोभ से उसने जो पाप बटोरा है वह पापी मनुष्य के साथही जाता है ह्मउसेही पापके परिणाम भुगतने पडते है ,पाप का कोर्इ विभाजन नहीं होता) |
उस धन के लोभ से उसने जो पाप बटोरा है वह पापी मनुष्य के साथही जाता है ह्मउसेही पापके परिणाम भुगतने पडते है ,पाप का कोर्इ विभाजन नहीं होता) |
सुभाषित 337
त्यजेत् क्षुधार्ता जननी स्वपुत्रं , खादेत् क्षुधार्ता भुजगी स्वमण्डम् |
बुभुक्षित: किं न करोति पापं , क्षीणा जना निष्करूणा भवन्ति //
बुभुक्षित: किं न करोति पापं , क्षीणा जना निष्करूणा भवन्ति //
भूख से व्याकूल माता अपने पुत्रका त्याग करेगी भूख से व्याकूल साँप अपने अण्डे खा लेगा भूखा क्या पाप नहीं कर सकता ? भूख से क्षीण लोग निर्दय बन जाते हैं |
सुभाषित 338
अणुभ्यश्च महद्भ्यश्च शास्त्रेभ्य: कुशलो नर: |
सर्वत: सारमादद्यात् पुष्पेभ्य इव षट्पद: //
भवरा जैसे छोटे बडे सभी फूलोमेसे केवल मधु इक{ा करता है उसी तरह चतुर मनुष्यने शास्त्रोमेसे केवल उनका सार लेना चाहिए |
सर्वत: सारमादद्यात् पुष्पेभ्य इव षट्पद: //
भवरा जैसे छोटे बडे सभी फूलोमेसे केवल मधु इक{ा करता है उसी तरह चतुर मनुष्यने शास्त्रोमेसे केवल उनका सार लेना चाहिए |
सुभाषित 339
न अन्नोदकसमं दानं न तिथिद्र्वादशीसमा |
न गायत्रया: परो मन्त्रो न मातु: परदैवतम् //
अन्नदान जैसे दान नही है |
द्वादशी जैसे पवित्र तिथी नही है |
गायत्री मन्त्र सर्वश्रेष्ठ मन्त्र है तथा माता सब देवताओंसेभी श्रेष्ठ है |
न गायत्रया: परो मन्त्रो न मातु: परदैवतम् //
अन्नदान जैसे दान नही है |
द्वादशी जैसे पवित्र तिथी नही है |
गायत्री मन्त्र सर्वश्रेष्ठ मन्त्र है तथा माता सब देवताओंसेभी श्रेष्ठ है |
सुभाषित 340
यत्र नार्य: तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: |
यत्र एता: तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्र अफला: क्रिया: //
मनुस्मॄति जहां स्त्रीयोंको मान दिया जाता है तथा उनकी पूजा होती है वहां देवताओंका निवास रहता है |
परन्तू जहां स्त्रीयोंकी निंदा होती है तथा उनका सम्मान नही किया जाता वहां कोइ भी कार्य सफल नही होता |
यत्र एता: तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्र अफला: क्रिया: //
मनुस्मॄति जहां स्त्रीयोंको मान दिया जाता है तथा उनकी पूजा होती है वहां देवताओंका निवास रहता है |
परन्तू जहां स्त्रीयोंकी निंदा होती है तथा उनका सम्मान नही किया जाता वहां कोइ भी कार्य सफल नही होता |
Om
Tat Sat
(Continued ...)
(My humble salutations to the lotus feet of Holy Sages of Hindu soil for
the collection)
0 comments:
Post a Comment