सुभाषित 341
वनेऽपि सिंहा मॄगमांसभक्षिणो बुभुक्षिता नैव तॄणं चरन्ति |
एवं कुलीना व्यसनाभिभूता न नीचकर्माणि समाचरन्ति //
जंगल मे मांस खानेवाले शेर भूक लगने पर भी जिस तरह घास नही खाते, उस तरह उच्च कुल मे जन्मे हुए व्यक्ति (सुसंस्कारित व्यक्ति) संकट काल मे भी नीच काम नही करते |
एवं कुलीना व्यसनाभिभूता न नीचकर्माणि समाचरन्ति //
जंगल मे मांस खानेवाले शेर भूक लगने पर भी जिस तरह घास नही खाते, उस तरह उच्च कुल मे जन्मे हुए व्यक्ति (सुसंस्कारित व्यक्ति) संकट काल मे भी नीच काम नही करते |
सुभाषित 342
खद्योतो द्योतते तावद् यवन्नोदयते शशी |
उदिते तु सहस्रांशौ न खद्योतो न चन्द्रमा: //
जब तक चन्द्रमा उगता नही, जुगनु (भी) चमकता है |
परन्तु जब सुरज उगता है तब जुगनु भी नही होता तथा चन्द्रमा भी नही (दोनो सुरज के सामने फीके पडते है)ा
उदिते तु सहस्रांशौ न खद्योतो न चन्द्रमा: //
जब तक चन्द्रमा उगता नही, जुगनु (भी) चमकता है |
परन्तु जब सुरज उगता है तब जुगनु भी नही होता तथा चन्द्रमा भी नही (दोनो सुरज के सामने फीके पडते है)ा
सुभाषित 343
स्वभावं न जहात्येव साधुरापद्गतोऽपि सन् |
कर्पूर: पावकस्पॄष्ट: सौरभं लभतेतराम् //
अच्छी व्यक्ति आपत्काल में भी अपना स्वभाव नहीं छोडती है , कर्पूर अग्निके स्पर्श से अधिक खुशबू निर्माण करता है
कर्पूर: पावकस्पॄष्ट: सौरभं लभतेतराम् //
अच्छी व्यक्ति आपत्काल में भी अपना स्वभाव नहीं छोडती है , कर्पूर अग्निके स्पर्श से अधिक खुशबू निर्माण करता है
सुभाषित 344
चित्त्स्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये |
वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किंचित्कर्मेकोटिभि: //
विवेकचूडामणी अंत:करण के शुद्धी के लिए कर्म ह,ै पारमार्थिक ज्ञान प्रााप्त करने के लिए नही |
पारमार्थिक ज्ञान तो चिंतन तथा विचार करने से ही प्रााप्त होता ह,ै कोटि कर्म करने से नही |
शुभाषित 345 श्रमेण दु:खं यत्किन्चिकार्यकालेनुभूयते |
कालेन स्मर्यमाणं तत् प्रामोद //
काम करते समय होनेवाले कष्ट के कारण थोडा दु:ख तो होता है |
परन्तु भविष्य में उस काम का स्मरण हुवा तो निश्चित ही आनंद होता है |
वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किंचित्कर्मेकोटिभि: //
विवेकचूडामणी अंत:करण के शुद्धी के लिए कर्म ह,ै पारमार्थिक ज्ञान प्रााप्त करने के लिए नही |
पारमार्थिक ज्ञान तो चिंतन तथा विचार करने से ही प्रााप्त होता ह,ै कोटि कर्म करने से नही |
शुभाषित 345 श्रमेण दु:खं यत्किन्चिकार्यकालेनुभूयते |
कालेन स्मर्यमाणं तत् प्रामोद //
काम करते समय होनेवाले कष्ट के कारण थोडा दु:ख तो होता है |
परन्तु भविष्य में उस काम का स्मरण हुवा तो निश्चित ही आनंद होता है |
सुभाषित 346
आस्ते भग आसीनस्य }ध्र्वम् तिष्ठति तिष्ठत: |
शेते निषद्यमानस्य चरति चरतो भग: //
जो मनुश्य (कुछ काम किए बिना) बैठता है, उसका भाग्य भी बैठता है |
जो खडा रहता है, उसका भाग्य भी खडा रहता है |
जो सोता है उसका भाग्य भी सोता है और जो चलने लगता है, उसका भाग्य भी चलने लगता है |
अर्थात कर्मसेही भाग्य बदलता है |
शेते निषद्यमानस्य चरति चरतो भग: //
जो मनुश्य (कुछ काम किए बिना) बैठता है, उसका भाग्य भी बैठता है |
जो खडा रहता है, उसका भाग्य भी खडा रहता है |
जो सोता है उसका भाग्य भी सोता है और जो चलने लगता है, उसका भाग्य भी चलने लगता है |
अर्थात कर्मसेही भाग्य बदलता है |
सुभाषित 347
विपदी धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रम: |
यशसि चाभिरूचिव्र्यसनं श्रुतौ प्रकॄतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् //
यशसि चाभिरूचिव्र्यसनं श्रुतौ प्रकॄतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् //
आपात्काल मे धेेैर्य , अभ्युदय मे क्षमा , सदन मे वाक्पटुता , युद्ध के समय बहादुरी , यशमे अभिरूचि , ज्ञान का व्यसन ये सब चीजे महापुरूषोंमे नैसर्गिक रूपसे पायी जाती हैं |
सुभाषित 348
यावत् भ्रियेत जठरं तावत् सत्वं हि देहीनाम् |
अधिकं योभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति //
मनुस्मॄती, महाभारत अपने स्वयम के पोषण के लिए जितना धन आवश्यक है उतने पर ही अपना अधिकार है |
यदि इससे अधिक पर हमने अपना अधिकार जमाया तो यह सामाजिक अपराध है तथा हम दण्ड के पात्र है |
अधिकं योभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति //
मनुस्मॄती, महाभारत अपने स्वयम के पोषण के लिए जितना धन आवश्यक है उतने पर ही अपना अधिकार है |
यदि इससे अधिक पर हमने अपना अधिकार जमाया तो यह सामाजिक अपराध है तथा हम दण्ड के पात्र है |
सुभाषित 349
अहं च त्वं च राजेन्द्र लोकनाथौ उभावपि |
बहुव्रीहिरहं राजन् षष्ठीतत्पुरूषो भवान //
एक भिखारी राजा से कहता है, “हे राजन्, , मै और आप दोनों लोकनाथ है |
ह्मबस फर्क इतना है कि) मै बहुव्रीही समास हंूँ तो आप षष्ठी तत्पुरूष हो !”
बहुव्रीहिरहं राजन् षष्ठीतत्पुरूषो भवान //
एक भिखारी राजा से कहता है, “हे राजन्, , मै और आप दोनों लोकनाथ है |
ह्मबस फर्क इतना है कि) मै बहुव्रीही समास हंूँ तो आप षष्ठी तत्पुरूष हो !”
सुभाषित 350
यदा न कुरूते भावं सर्वभूतेष्वमंगलम् |
समदॄष्टेस्तदा पुंस: सर्वा: सुखमया दिश: //
श्रीमदभागवत 9|15|15 जो मनुष्य किसी भी जीव के प्राती अमंगल भावना नही रखता,, जो मनुष्य सभी की ओर सम्यक् दॄष्टीसे देखता है, ऐसे मनुष्य को सब ओर सुख ही सुख है |
समदॄष्टेस्तदा पुंस: सर्वा: सुखमया दिश: //
श्रीमदभागवत 9|15|15 जो मनुष्य किसी भी जीव के प्राती अमंगल भावना नही रखता,, जो मनुष्य सभी की ओर सम्यक् दॄष्टीसे देखता है, ऐसे मनुष्य को सब ओर सुख ही सुख है |
सुभाषित 351
शरदि न वर्षति गर्जति वर्षति वर्षासु नि:स्वनो मेघ: नीचो वदति न कुरुते न वदति सुजन: करोत्येव
शरद ऋतुमे बादल केवल गरजते है, बरसते नही|वर्षा ऋतुमै बरसते है, गरजते नही| नीच मनुश्य केवल बोलता है, कुछ करता नही|परन्तु सज्जन करता है, बोलता नही|
सुभाषित 352
सर्वार्थसंभवो देहो जनित: पोषितो यत: |
न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मत्र्य: शतायुषा //
श्रीमदभागवत 10|45|5
न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मत्र्य: शतायुषा //
श्रीमदभागवत 10|45|5
एक सौ वर्ष की आयु प्रााप्त हुआ मनुष्य देह भी अपने माता पिता के ऋणोंसे मुक्त नही होता |
जो देह चार पुरूषार्थोंकी प्रााप्ती का प्रामुख साधन ह,ै उसका निर्माण तथा पोषण जिन के कारण हुआ है, उनके ऋण से मुक्त होना असंभव है |
जो देह चार पुरूषार्थोंकी प्रााप्ती का प्रामुख साधन ह,ै उसका निर्माण तथा पोषण जिन के कारण हुआ है, उनके ऋण से मुक्त होना असंभव है |
सुभाषित 353
अमॄतं चैव मॄत्युश्च द्वयं देहप्रातिष्ठितम् |
मोहादापद्यते मॄत्यु: सत्येनापद्यतेऽमॄतम् //
श्री शंकराचार्य
मोहादापद्यते मॄत्यु: सत्येनापद्यतेऽमॄतम् //
श्री शंकराचार्य
मॄत्यु तथा अमरत्व दोनों एक ही देह में निवास करती है |
मोह के पिछे भागनेसे मॄत्यु आती है तथा सत्य के पिछे चलनेसे अमरत्व प्रााप्त होता है |
मोह के पिछे भागनेसे मॄत्यु आती है तथा सत्य के पिछे चलनेसे अमरत्व प्रााप्त होता है |
सुभाषित 354
परिवर्तिनि संसारे मॄत: को वा न जायते |
स जातो येन जातेन याति वंश: समुन्न्तिम् //
नितीशतक 32 इस जीवन मॄत्यु के अखंडीत चक्र में जिस की मॄत्यु होती ह,ै क्या उसका पुन: जन्म नही होता? परन्तु उसीका जन्म, जन्म होता है जिससे उसके कुल का गौरव बढता है |
स जातो येन जातेन याति वंश: समुन्न्तिम् //
नितीशतक 32 इस जीवन मॄत्यु के अखंडीत चक्र में जिस की मॄत्यु होती ह,ै क्या उसका पुन: जन्म नही होता? परन्तु उसीका जन्म, जन्म होता है जिससे उसके कुल का गौरव बढता है |
सुभाषित 355
को न याति वशं लोके मुखे पिण्डेन पूरित: मॄदंगो मुखलेपेन करोति मधुरध्वनिम्
मुख खाद्य से भरकर किसको अंकीत नहि किया जा सकता| आटा लगानेसे मॄदुंग भी मधुर ध्वनि निकालता है|
सुभाषित 356
सर्वनाशे समुत्पन्ने ह्मर्धं त्यजति पण्डित: अर्धेन कुरुते कार्यं सर्वनाशो हि दु:सह:
जब सर्वनाश निकट आता है, तब बुद्धिमान मनुष्य अपने पास जो कुछ है उसका आधा गवानेकी तैयारी रखता है| आधेसे भी काम चलाया जा सकता है, परंतु सबकुछ गवाना बहुत दु:खदायक होता है|
सुभाषित 357
गुणेषु क्रियतां यत्न: किमाटोपै: प्रयोजनम् विक्रीयन्ते न घण्टाभि: गाव: क्षीरविवर्जिता:
स्वयं मे अच्छे गुणों की वॄद्धी करनी चहिए| दिखावा करके लाभ नही होता| दुध न देनेवाली गाय उसके गलेमे लटकी हुअी घंटी बजानेसे बेची नही जा सकती|
शुभाषित 358
साहित्यसंगीतकलाविहीन: साक्षात् पशु: पुच्छविषाणहीन: |
तॄणं न खादन्नपि जीवमान: तद्भागधेयं परमं पशूनाम् //
नीतिशतक जिस व्यक्ती को कला संगीत में रूची नही है वह तो केवल पूंछ तथा सिंग रहीत पशू है |
यह तो पशूओंका सौभाग्य है की वह घास नही खाता! शुभाषित 359
तॄणं न खादन्नपि जीवमान: तद्भागधेयं परमं पशूनाम् //
नीतिशतक जिस व्यक्ती को कला संगीत में रूची नही है वह तो केवल पूंछ तथा सिंग रहीत पशू है |
यह तो पशूओंका सौभाग्य है की वह घास नही खाता! शुभाषित 359
न प्रा)ष्यति सम्माने नापमाने च कुप्यति |
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत: //
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत: //
संत तो वही है जो मान देने पर हर्षित नही होता अपमान होने पर क्रोधीत नही होता तथा स्वयं क्रोधीत होने पर कठोर शब्द नही बोलता |
सुभाषित 360
असभ्दि: शपथेनोक्तं जले लिखितमक्षरम् |
सभ्दिस्तु लीलया प्राोक्तं शिलालिखितमक्षरम् //
सभ्दिस्तु लीलया प्राोक्तं शिलालिखितमक्षरम् //
शुभाषित 361
दुर्जनोने ली हुइ शपथ भी पानी के उपर लिखे हुए अक्षरों जैसे क्षणभंगूर ही होती है |
परन्तू संतो जैसे व्यक्तिने सहज रूप से बोला हुआ वाक्य भी शिला के उपर लिखा हुआ जैसे रहता है |
परन्तू संतो जैसे व्यक्तिने सहज रूप से बोला हुआ वाक्य भी शिला के उपर लिखा हुआ जैसे रहता है |
सुभाषित 361
आरोप्यते शिला शैले यत्नेन महता यथा |
पात्यते तु क्षणेनाधस्तथात्मा गुणदोषयो: //
शिला को पर्वत के उपर ले जाना कठिन कार्य है परन्तू पर्वत के उपर से नीचे ढकेलना तो बहुत ही सुलभ है |
ऐसे ही मनुष्य को सद्गुणोसे युक्त करना कठिन है पर उसे दुर्गुणों से भरना तो सुलभही है |
पात्यते तु क्षणेनाधस्तथात्मा गुणदोषयो: //
शिला को पर्वत के उपर ले जाना कठिन कार्य है परन्तू पर्वत के उपर से नीचे ढकेलना तो बहुत ही सुलभ है |
ऐसे ही मनुष्य को सद्गुणोसे युक्त करना कठिन है पर उसे दुर्गुणों से भरना तो सुलभही है |
सुभाषित 362
लुब्धमर्थेन गॄ*णीयात् क्रुद्धमञ्जलिकर्मणा मूर्खं छन्दानुवॄत्त्या च तत्वार्थेन च पण्डितम्
लालचि मनुष्यको धन (का लालच) देकर वश किया जा सकता है| क्रोधित व्यक्तिके साथ नम्र भाव रखकर उसे वश किया जा सकता है| मूर्ख मनुष्य को उसके इछानुरुप बर्ताव कर वश कर सकते है| तथ ज्ञानि व्यक्ति को मुलभूत तत्व बताकर वश कर सकते है|
अधर्मेणैथते पूर्व ततो भद्राणि पश्यति |
तत: सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति //
कुटिलता व अधर्म से मानव क्षणिक समॄद्वि व संपन्नता पाता है |
अच्छा दैवका अनुभव भी करता है |
शत्रु को भी जीत लेता है |
परन्तू अन्त मे उसका विनाश निश्चित है |
वह जड समेत नष्ट होता है |
विद्या मित्रं प्रावासेषु भार्या मित्रं गॄहेषु च |
व्याधितस्योषधं मित्रं धर्मो मित्रं मॄतस्य च //
तत: सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति //
कुटिलता व अधर्म से मानव क्षणिक समॄद्वि व संपन्नता पाता है |
अच्छा दैवका अनुभव भी करता है |
शत्रु को भी जीत लेता है |
परन्तू अन्त मे उसका विनाश निश्चित है |
वह जड समेत नष्ट होता है |
विद्या मित्रं प्रावासेषु भार्या मित्रं गॄहेषु च |
व्याधितस्योषधं मित्रं धर्मो मित्रं मॄतस्य च //
विद्या प्रावास के समय मित्र है |
पत्नी अपने घर मे मित्र है |
व्याधी ग्रस्त शरीर को औषधी मित्र है तथा मॄत्यु के पश्च्यात धर्म अपना मित्र है |
पत्नी अपने घर मे मित्र है |
व्याधी ग्रस्त शरीर को औषधी मित्र है तथा मॄत्यु के पश्च्यात धर्म अपना मित्र है |
सुभाषित 365
रूपयौवनसंपन्ना: विशालकुलसंभवा: |
विद्याहीना: न शोभन्ते निर्गन्धा: किंशुका: इव //
विद्याहीना: न शोभन्ते निर्गन्धा: किंशुका: इव //
सुभाषित 367
नरपतिहितकर्ता द्वेष्यतां याति लोके जनपदहितकर्ता त्यज्यते पार्थिवेन इति महति विरोधे विद्यमाने समाने नॄपतिजनपदानां दुर्लभ: कार्यकर्ता
राजाका कल्याण करनेवालेका लोग द्वेश करते है| लोगोंका कल्याण करनेवालेको राजा त्याग देता है| इस तरह दोनो ओर से बडा विरोध होते हुए भी राजा और प्रजा दोनोका कल्याण करनेवाला मनुष्य दुर्लभ होता है|
सुभाषित 368
दीपो नाशयते ध्वांतं धनारोग्ये प्रयच्छति कल्याणाय भवति एव दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते दीया अंध:कार का नाश करता है और आरोग्य तथा धन देता है| सबके कल्याण करने वाले दीयेको मेरा प्रणाम
सुभाषित 369
तत् कर्म यत् न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये |
आयासाय अपरं कर्म विद्या अन्या शिल्पनैपुणम् //
विष्णुपुराण 2|3
आयासाय अपरं कर्म विद्या अन्या शिल्पनैपुणम् //
विष्णुपुराण 2|3
जिस कर्म से मनुष्य बन्धन में नही बन्ध जाता वही सच्चा कर्म है |
जो मुक्ति का कारण बनती है वही सच्ची विद्या है |
शेष कर्म तो कष्ट का ही कारण होती है तथा अन्य प्राकार की विद्या तो केवल नैपुण्ययुक्त कारागिरी है |
जो मुक्ति का कारण बनती है वही सच्ची विद्या है |
शेष कर्म तो कष्ट का ही कारण होती है तथा अन्य प्राकार की विद्या तो केवल नैपुण्ययुक्त कारागिरी है |
अक्षरद्वयम् अभ्यस्तं नास्ति नास्ति इति यत् पुरा |
तद् इदं देहि देहि इति विपरीतम् उपस्थितम् संपत्ती के परमोच्च शिखर पर यदि मनुष्य ने याचक को नही नही कहा तो निश्चितही भविष्य में ऐसे मनुष्य को दिजीए दिजीए ऐसे कहनेकी परिस्थिती नियती ले आएगी |
अन्यक्षेत्रे कॄतं पापं पुण्यक्षेत्रे विनश्यति |
पुण्यक्षेत्रे कॄतं पापं वज्रलेपो भविष्यति //
अन्यक्षेत्र में किए पाप पुण्य क्षेत्र में धुल जाते है |
पर पुण्य क्षेत्र में किए पाप तो वज्रलेप की तरह होते है र् अक्षमस्व |
असारे खलु संसारे सारं श्वशुरमन्दिरम् |
हरो हिमालये शेते हरि: शेते महोदधौ //
इस सारहीन जगत में केवल श्वशुर का घर रहने योग्य है |
इसी कारण शंकर भगवान हिमालय में रहते है तथा विष्णू भगवान समुद्र में रहते है |
एकेन अपि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम् |
सह एव दशभि: पुत्रै: भारं वहति गर्दभी //
सिंहीन को यदि एक छावा भी है तो भी वह आराम करती है क्योंकी उसका छावा उसे भक्ष्य लाकर देता है |
परन्तु गधी को दस बच्चे होने परभी स्वयं भार का वहन करना पडता है |
तद् इदं देहि देहि इति विपरीतम् उपस्थितम् संपत्ती के परमोच्च शिखर पर यदि मनुष्य ने याचक को नही नही कहा तो निश्चितही भविष्य में ऐसे मनुष्य को दिजीए दिजीए ऐसे कहनेकी परिस्थिती नियती ले आएगी |
अन्यक्षेत्रे कॄतं पापं पुण्यक्षेत्रे विनश्यति |
पुण्यक्षेत्रे कॄतं पापं वज्रलेपो भविष्यति //
अन्यक्षेत्र में किए पाप पुण्य क्षेत्र में धुल जाते है |
पर पुण्य क्षेत्र में किए पाप तो वज्रलेप की तरह होते है र् अक्षमस्व |
असारे खलु संसारे सारं श्वशुरमन्दिरम् |
हरो हिमालये शेते हरि: शेते महोदधौ //
इस सारहीन जगत में केवल श्वशुर का घर रहने योग्य है |
इसी कारण शंकर भगवान हिमालय में रहते है तथा विष्णू भगवान समुद्र में रहते है |
एकेन अपि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम् |
सह एव दशभि: पुत्रै: भारं वहति गर्दभी //
सिंहीन को यदि एक छावा भी है तो भी वह आराम करती है क्योंकी उसका छावा उसे भक्ष्य लाकर देता है |
परन्तु गधी को दस बच्चे होने परभी स्वयं भार का वहन करना पडता है |
सुभाषित 374
आचार: प्रथमो धर्म: अित्येतद् विदुषां वच: तस्माद् रक्षेत् सदाचारं प्राणेभ्योऽपि विशेषत:
अच्छा बर्ताव रखना यह सबसे जादा महात्त्वपूर्ण है ऐसा पंडीतोने कहा इसलिए अपने प्राणोका मोल देके भी अच्छाा बर्ताव रखना चाहिए| न तथा शीतलसलिलं न चन्दनरसो न शीतला छाया |
प्र*लादयति पुरूषं यथा मधुरभाषिणी वाणी //
प्र*लादयति पुरूषं यथा मधुरभाषिणी वाणी //
शीतल जल चंदन अथवा छाया किसी में भी इतनी शीतलता नही होती जितनी के मधुर वणी में होती है |
सुभाषित 376
न मर्षयन्ति चात्मानं संभावयितुमात्मना |
अदर्शयित्वा शूरास्तू कर्म कुर्वन्ति दुष्करम् //
अदर्शयित्वा शूरास्तू कर्म कुर्वन्ति दुष्करम् //
शूर जनों को अपने मुख से अपनी प्राशंसा करना सहन नहीं होता |
वे वाणी के द्वारा प्रादर्शन न करके दुष्कर कर्म ही करते है |
वे वाणी के द्वारा प्रादर्शन न करके दुष्कर कर्म ही करते है |
चलन्तु गिरय: कामं युगान्तपवनाहता: |
कॄच्छे्रपि न चलत्येव धीराणां निश्चलं मन: //
युगान्तकालीन वायु के झोंकों से पर्वत भले ही चलने लगें परन्तु धैर्यवान् पुरूषों के निश्चल )दय किसी भी संकट में नहीं डगमगाते |
कॄच्छे्रपि न चलत्येव धीराणां निश्चलं मन: //
युगान्तकालीन वायु के झोंकों से पर्वत भले ही चलने लगें परन्तु धैर्यवान् पुरूषों के निश्चल )दय किसी भी संकट में नहीं डगमगाते |
सुभाषित 378
मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् |
मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम्
मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम्
महान व्यक्तियों के मनमे जो विचार होता है वही वे बोलते है और वही कॄतिमेभी लाते है| उसके विपारित नीच लोगोंके मनमे एक होता है वै बोलते दुसरा है और करते तिसरा है|
सुभाषित 379
जीवने यावदादानं स्यात्,,, प्रदानं ततोऽधिकम् |
इतयेषा प्रार्थनाऽस्माकं भगवन्परिपूर्यताम्
इतयेषा प्रार्थनाऽस्माकं भगवन्परिपूर्यताम्
हमारे जीवन में हमारी याचनाओं से अधीक हमारा दान हो यह एक प्रार्थना हे भगवन् तुम पूरी करदो|
सुभाषित 380
सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा |
शान्ति: पत्नी क्षमा पुत्र: षडेते मम बान्धवा: //
शान्ति: पत्नी क्षमा पुत्र: षडेते मम बान्धवा: //
सत्य मेरी माता, ज्ञान मेरे पिता, धर्म मेरा बन्धु, दया मेरा सखा, शान्ति मेरी पत्नी तथा क्षमा मेरा पुत्र है |
यह सब मेरे रिश्तेदार है |
यह सब मेरे रिश्तेदार है |
सुभाषित 381
न अहं जानामि केयुरे, नाहं जानामि कुण्डले |
नूपुरे तु अभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात् //
रामायण 4, 6|22 रावण जब बलपुर्वक सीता माता को ले जा रहा था तभी सीता माता ने अपने कुछ आभरण इस आशासे गिराए थे की श्रीराम उन्हे देखकर उन तक पहुंच सके |
नूपुरे तु अभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात् //
रामायण 4, 6|22 रावण जब बलपुर्वक सीता माता को ले जा रहा था तभी सीता माता ने अपने कुछ आभरण इस आशासे गिराए थे की श्रीराम उन्हे देखकर उन तक पहुंच सके |
यही आभरण लक्ष्मण को श्रीराम ने पहचाननेके लिए कहा |
तब लक्ष्मण ने कहार् “ मैं इन कुण्डलों तथा बाजूबंद को तो नही पहचान सकता |
परन्तु नित्य उनके चरण स्पर्श करते रहने कारण यह नुपूर उनकेही है यह मैं निश्चयसे कह सकता हूं |
“
तब लक्ष्मण ने कहार् “ मैं इन कुण्डलों तथा बाजूबंद को तो नही पहचान सकता |
परन्तु नित्य उनके चरण स्पर्श करते रहने कारण यह नुपूर उनकेही है यह मैं निश्चयसे कह सकता हूं |
“
सुभाषित 382
तद् ब्रूहि वचनं देवि ,राज्ञ: यद् अभिकांक्षितम् |
करिष्ये प्रतिजाने च , रामो द्विर् न अभिभाषते //
रामायण अयोध्या सर्ग 18|30 भरत का राज्याभिषेक व श्रीराम को वनवास यह वर राजा दशरथ से पाकर , कैकेयी श्रीराम को कहती है की राजा दशरथ अप्रीय वार्ता सुनाने के इच्छुक नही हैं |
इसलिये यदि श्रीराम राजा कि इच्छानुसार करेंगे तो ही माता कैकयी उन्हे वह वर्ता सुनायेंगी |
यह सुनके श्रीराम कहते है , “राजा के आज्ञा पर मै अग्नी प्रव्ेाशभी कर सकताहु |
मै प्रतिज्ञा करता हुं, जो राजा कहेंगे मै वही करूंगा” |
श्रीराम दोबार वचन नही देते थे |
श्रीराम एक एकवचनी थे |
करिष्ये प्रतिजाने च , रामो द्विर् न अभिभाषते //
रामायण अयोध्या सर्ग 18|30 भरत का राज्याभिषेक व श्रीराम को वनवास यह वर राजा दशरथ से पाकर , कैकेयी श्रीराम को कहती है की राजा दशरथ अप्रीय वार्ता सुनाने के इच्छुक नही हैं |
इसलिये यदि श्रीराम राजा कि इच्छानुसार करेंगे तो ही माता कैकयी उन्हे वह वर्ता सुनायेंगी |
यह सुनके श्रीराम कहते है , “राजा के आज्ञा पर मै अग्नी प्रव्ेाशभी कर सकताहु |
मै प्रतिज्ञा करता हुं, जो राजा कहेंगे मै वही करूंगा” |
श्रीराम दोबार वचन नही देते थे |
श्रीराम एक एकवचनी थे |
सुभाषित 383
तिष्ठेत् लोको विना सूर्यं सस्यमं वा सलिलं विना |
न हि रामं विना देहे तिष्ठेत् तु मम जीवितम् //
रामायण
न हि रामं विना देहे तिष्ठेत् तु मम जीवितम् //
रामायण
कैकेयी जब राजा दशरथ से श्रीराम को वनवास भेजनेका वर मांगती है तब राजा दशरथ कहते है की हो सकता है के सूर्य के बिना सॄष्टी टीकी रहे या पानी के बिना धान्य विकसीत हो |
पर श्रीराम के बिना इस देह में प्रााण रहना असंभव है |
पर श्रीराम के बिना इस देह में प्रााण रहना असंभव है |
भविष्य में राजा दशरथ की यह बात सिद्ध हुइ |
सुभाषित 384
दूरस्था: पर्वता: रम्या: वेश्या: च मुखमण्डने |
युध्यस्य तु कथा रम्या त्रीणि रम्याणि दूरत: //
युध्यस्य तु कथा रम्या त्रीणि रम्याणि दूरत: //
पहाड दूर से बहुत अच्छे दिखते है |
मुख विभुषित करने के बाद वैश्या भी अच्छी दिखती है |
युद्ध की कहानिया सुनने को बहौत अच्छी लगती है |
ये तिनो चिजे पर्याप्त अंतर रखने से ही अच्छी लगती है |
मुख विभुषित करने के बाद वैश्या भी अच्छी दिखती है |
युद्ध की कहानिया सुनने को बहौत अच्छी लगती है |
ये तिनो चिजे पर्याप्त अंतर रखने से ही अच्छी लगती है |
सुभाषित 385
उपाध्यात् दश आचार्य: आचार्याणां शतं पिता |
सहस्रं तु पितॄन् माता गौरवेण अतिरिच्यते //
मनुस्मॄति
सहस्रं तु पितॄन् माता गौरवेण अतिरिच्यते //
मनुस्मॄति
आचार्य उपाध्यायसे दस गुना श्रेष्ठ होते है |
पिता सौ आचार्याें के समान होते है |
माता पितासे हजार गुना श्रेष्ठ होती है |
पिता सौ आचार्याें के समान होते है |
माता पितासे हजार गुना श्रेष्ठ होती है |
सुभाषित 386
आर्ता देवान् नमस्यन्ति, तप: कुर्वन्ति रोगिण: |
निर्धना: दानम् इच्छन्ति, वॄद्धा नारी पतिव्रता //
निर्धना: दानम् इच्छन्ति, वॄद्धा नारी पतिव्रता //
संकट में लोग भगवान की प्राार्थना करते है, रोगी व्यक्ति तप करने की चेष्टा करता है |
निर्धन को दान करने की इच्छा होती है तथा वॄद्ध स्त्री पतिव्रता होती है |
लोग केवल परिस्थिती के कारण अच्छे गुण धारण करने का नाटक करते है |
निर्धन को दान करने की इच्छा होती है तथा वॄद्ध स्त्री पतिव्रता होती है |
लोग केवल परिस्थिती के कारण अच्छे गुण धारण करने का नाटक करते है |
सुभाषित 387
शोको नाशयते धैर्य, शोको नाशयते श्रॄतम् |
शोको नाशयते सर्वं, नास्ति शोकसमो रिपु: //
शोको नाशयते सर्वं, नास्ति शोकसमो रिपु: //
शोक धैर्य को नष्ट करता है, शोक ज्ञान को नष्ट करता है, शोक सर्वस्व का नाश करता है |
इस लिए शोक जैसा कोइ शत्रू नही है |
इस लिए शोक जैसा कोइ शत्रू नही है |
सुभाषित 388
भीष्मद्रोणतटा जयद्रथजला गान्धारनीलोत्पला |
शल्यग्राहवती कॄपेण महता कर्णेन वेलाकुला //
अश्वत्थामविकर्णघोरमकरा दुर्योधनावर्तिनी |
सोत्तीर्णा खलु पाण्डवै: रणनदी कैवर्तक: केशव: //
शल्यग्राहवती कॄपेण महता कर्णेन वेलाकुला //
अश्वत्थामविकर्णघोरमकरा दुर्योधनावर्तिनी |
सोत्तीर्णा खलु पाण्डवै: रणनदी कैवर्तक: केशव: //
भीष्म और द्रोण जिसके दो तट है जयद्रथ जिसका जल है शकुनि ही जिसमें नीलकमल है शल्य जलचर ग्राह है कर्ण तथा कॄपाचार्य ने जिसकी मर्यादा को आकुल कर डाला है अश्वत्थामा और विकर्ण जिस के घोर मगर है ऐसी भयंकर और दुर्योधन रूपी भंवर से युक्त रणनदी को केवल श्रीकॄष्ण रूपी नाविक की सहायता से पाण्डव पार कर गये |
सुभाषित 389
श्रिय: प्रसूते विपद: रुणद्धि,
यशांसि दुग्धे मलिनं प्रमार्ष्टि ।
संस्कार सौधेन परं पुनीते,
शुद्धा हि बुद्धि: किलकामधेनु: ।।
शुद्ध बुद्धि निश्चय ही कामधेनु जैसी है क्योंकि वह धन-धान्य पैदा करती है; आने वाली आफतों से बचाती है; यश और कीर्ति रूपी दूध से मलिनता को धो डालती है; और दूसरों को अपने पवित्र संस्कारों से पवित्र करती है। इस तरह विद्या सभी गुणों से परिपूर्ण है।
1.1 अ
अकर्म-शीलं च महाशनं च लोक-द्विष्टं बहुमायं नृशंसम् ।अदेश-कालज्ञम् अनिष्ट-वेषम् एतान् गृहे न प्रतिवासयीत ।।१४१।।
अकस्मात् प्रक्रिया नॄणाम् अकस्माच् चापकर्षणम् ।
शुभाशुभे महत्त्वं च प्रकर्तुं बुद्धि-लाघवात् ।।१४०।।
अकामस्य क्रिया काचिद् दृश्यते नेह कऋहिचित् ।
यद् यद् धि कुरुते किञ्चित् तत् तत् कामस्य चेष्टितम् ।।१३८।।
अकामान् कामयति यः कामयानान् परित्यजेतस्मै ।
बलवन्तं च यो द्वेष्टि तम् आहुर् मूढ-चेतसम् ।।१३५।।
अकामान् कामयानस्य शरीरम् उपतप्यते ।
इच्छन्तीं कामयानस्य प्रीतिर् भवति शोभना ।।१३७।।
अकार्य-करणाद् भीतः कार्याणां च विवर्जनात् ।
अकाले मन्त्र-भेदाच् च येन माद्येन् न तत् पिबेत् ।।१३४।।
अकार्याण्य् अपि पर्याप्य कृत्वापि वृजिनार्जनम् ।
विधीयते हितं यस्य स देहः कस्य सुस्थिरः ।।१३२।। [रा.त. ४.३८३]
विधीयते हितं यस्य स देहः कस्य सुस्थिरः ।।१३२।। [रा.त. ४.३८३]
अकाल-सहमत्य्-अल्पं मूर्ख-व्यसनि-नायकम् ।
अगुप्तं भीरु-योधं च दुर्ग-व्यसनम् उच्यते ।।१३१।। [हि. ३.१३५]
अगुप्तं भीरु-योधं च दुर्ग-व्यसनम् उच्यते ।।१३१।। [हि. ३.१३५]
अकाले कृत्यम् आरब्धं कऋतुं नार्थाय कल्पते ।
तद् एव काल आरब्धं महतेऽर्थाय कल्पते ।।१२९।। [म.भा. १२.५००६]
तद् एव काल आरब्धं महतेऽर्थाय कल्पते ।।१२९।। [म.भा. १२.५००६]
अकिञ्चनः परिपतन् सुखम् आस्वादयिष्यसि ।
अकिञ्चनः सुखं शेते समुत्तिष्ठति चैव ह ।।१२८।। [म.भा. १२.६५६८]
अकिञ्चनः सुखं शेते समुत्तिष्ठति चैव ह ।।१२८।। [म.भा. १२.६५६८]
अकिञ्चनस्य शुद्धस्य उपपन्नस्य सर्वशः ।
अवेक्षमाणस् त्रींल् लोकान् न तुल्यम् उपलक्षये ।।१२६।। [म.भा. १२.६५७०]
अवेक्षमाणस् त्रींल् लोकान् न तुल्यम् उपलक्षये ।।१२६।। [म.भा. १२.६५७०]
अकीर्तिं विनयो हन्ति हन्त्य् अनर्थं पराक्रमः ।
हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधम् आचारो हन्त्य् अलक्षणम् ।।१२५।। [म.भा. ५.१४८८]
हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधम् आचारो हन्त्य् अलक्षणम् ।।१२५।। [म.भा. ५.१४८८]
अकृतेष्व् एव कार्येषु मृत्युर् वै सम्प्रकर्षति ।
युवैव धर्म-शीलः स्याद् अनिमित्तं हि जीवितम् ।।१२३।। [म.भा. १२.९९४२]
अक्रोधनः क्रोधनेभ्यो विशिष्टस् तथा तितिक्षुर् अतितिक्षोर् विशिष्टः ।
अमानुषेभ्यो मानुषाश् च प्रधाना विद्वांस् रथैवाविदुषः प्रधानः ।।१२२।। [म.भा. १.३५५६]
अमानुषेभ्यो मानुषाश् च प्रधाना विद्वांस् रथैवाविदुषः प्रधानः ।।१२२।। [म.भा. १.३५५६]
अक्रोधेन जयेत् क्रुद्धम् असाधुं साधुना जयेत् ।
जयेत् कदर्थं दानेन जयेत् सत्येन चानृतम् ।।१२०।। [म.भा. ५.१५१८]
जयेत् कदर्थं दानेन जयेत् सत्येन चानृतम् ।।१२०।। [म.भा. ५.१५१८]
अक्षमः क्षमता-मानी क्रियायां यः प्रवर्तते ।
स हि हास्यास्पदत्वं च लभते प्राण-संशयम् ।।११९।। [सं. ३९]
स हि हास्यास्पदत्वं च लभते प्राण-संशयम् ।।११९।। [सं. ३९]
अक्षेत्रे बीजम् उत्सृष्टम् अन्तरैव विनश्यति ।
अबीजकम् अपि क्षेत्रं केवलं स्थण्डिलं भवेत् ।।११६।। [मनु. १०.७१]
अबीजकम् अपि क्षेत्रं केवलं स्थण्डिलं भवेत् ।।११६।। [मनु. १०.७१]
अक्षमा ह्री-परित्यागः श्री-नाशो धर्म-सङ्क्षयः ।
अभिध्या-प्रख्यता चैव सर्वं लोभात् प्रवर्तते ।।११७।। [म.भा. १२.५८८१]
अभिध्या-प्रख्यता चैव सर्वं लोभात् प्रवर्तते ।।११७।। [म.भा. १२.५८८१]
अग्निं प्राप्य यथा सद्यस् तूल-राशिर् विनश्यति ।
तथा गङ्गा-प्रवाहेण सर्वं पापं विनश्यति ।।११४।। [विक्रम. १८३]
तथा गङ्गा-प्रवाहेण सर्वं पापं विनश्यति ।।११४।। [विक्रम. १८३]
अग्निस् तेजो महल् लोके गूढस् तिष्ठति दारुषु ।
न चोपयुङ्क्ते तद् दारु यावन् नो दीप्यते परैः ।।११३।। [म.भा. ५.१३९४]
न चोपयुङ्क्ते तद् दारु यावन् नो दीप्यते परैः ।।११३।। [म.भा. ५.१३९४]
अग्निहोत्रं त्रयो वेदास् त्रिदण्डं भस्म-गुण्ठनम् ।
प्रज्ञा-पौरुष-हीनानां जीविकेति बृहस्पतिः ।।१०८।। [प्र. ३०]
प्रज्ञा-पौरुष-हीनानां जीविकेति बृहस्पतिः ।।१०८।। [प्र. ३०]
अग्न्य्-आधानेन यज्ञेन काषायेण जटाजिनैः ।
लोकान् विश्वासयित्वैव ततो लुम्पेद् यथा वृकः ।।१०५।। [म.भा. १.५५६०]
लोकान् विश्वासयित्वैव ततो लुम्पेद् यथा वृकः ।।१०५।। [म.भा. १.५५६०]
अग्नौ प्रास्तं तु पुरुषं कर्मान्वेति स्वयं कृतम् ।
तस्मात् तु पुरुषो यत्नाद् धर्मं संचिनुयाच् छनैः ।।१०७।। [म.भा. ५.१५५०]
तस्मात् तु पुरुषो यत्नाद् धर्मं संचिनुयाच् छनैः ।।१०७।। [म.भा. ५.१५५०]
अघं स केवलं भुङ्क्ते यः पचत्य् आत्म-कारणात् ।
यज्ञ-शिष्टाशनं ह्य् एतत् सताम् अन्नं विधीयते ।।१०४।। [मनु. ३.११८]
यज्ञ-शिष्टाशनं ह्य् एतत् सताम् अन्नं विधीयते ।।१०४।। [मनु. ३.११८]
अचोद्यमानानि यथा पुष्पाणि च फलानि च ।
स्व-कालं नातिवर्तन्ते तथा कर्म पुरा-कृतम् ।।१०२।। [म.भा. १२.६७५६]
स्व-कालं नातिवर्तन्ते तथा कर्म पुरा-कृतम् ।।१०२।। [म.भा. १२.६७५६]
अजा-खर-खुरोत्सर्ग-मार्जनी-रेणुवज् जनैः ।
दीप-खट्वोत्थ-च्छायेव त्यज्यते निर्धनो जनः ।।१०१।। [पञ्च. २.१०८]
अज्ञानाद् यदि वा ज्ञानात् कृत्वा कर्म विगर्हितम् ।दीप-खट्वोत्थ-च्छायेव त्यज्यते निर्धनो जनः ।।१०१।। [पञ्च. २.१०८]
तस्माद् विमुक्तिम् अन्विच्छन् द्वितीयं न समाचरेत् ।।९९।। [मनु ११.२३२]
अज्ञेभ्यो ग्रन्थिनः श्रेष्ठा ग्रन्थिभ्यो धारिणो वराः ।
धारिभ्यो ज्ञानिनः श्रेष्ठा ज्ञानिभ्यो व्यवसायिनः ।।९८।। [मनु १२.१०३]
अतिक्लेशेन यद् द्रव्यम् अतिलोभेन यत् सुखम् ।
पर-पीडा च या वृत्तिर् नैव साधुषु विद्यते ।।९६।। [म.भा. ५.१५२१]
पर-पीडा च या वृत्तिर् नैव साधुषु विद्यते ।।९६।। [म.भा. ५.१५२१]
अतिवादांस् तितिक्षेत नाभिमन्येत् कथंचन ।
क्रोध्यमानः प्रियं ब्रूयाद् आक्रुष्टः कुशलं वदेत् ।।९५।। [मनु. ६.४७]
क्रोध्यमानः प्रियं ब्रूयाद् आक्रुष्टः कुशलं वदेत् ।।९५।। [मनु. ६.४७]
अतीतान् आगता भावा ये च वर्तन्ति सांप्रतम् ।
तान् काल-निर्मितान् बुद्ध्वा न संज्ञां हातुम् अर्हसि ।।९३।। [म.भा. १.२४४]
तान् काल-निर्मितान् बुद्ध्वा न संज्ञां हातुम् अर्हसि ।।९३।। [म.भा. १.२४४]
अतीव गुण-सम्पन्नो न जातु विनयान्वितः ।
सुसूक्ष्मम् अपि भूतानाम् उपमर्दम् उपेक्षते ।।९२।। [म.भा. ५.१४५५]
सुसूक्ष्मम् अपि भूतानाम् उपमर्दम् उपेक्षते ।।९२।। [म.भा. ५.१४५५]
अतुष्टि-दानं कृत-पूर्व-नाशनम् अमाननं दुश्चरितानुकीर्तनम् ।
कथा-प्रसङ्गेन च नाम-विस्मृतिर् विरक्त-भावस्य जनस्य लक्षणम् ।।९०।। [हि. १.११४]
कथा-प्रसङ्गेन च नाम-विस्मृतिर् विरक्त-भावस्य जनस्य लक्षणम् ।।९०।। [हि. १.११४]
अत्यन्त-चञ्चलस्येह पारदस्य निबन्धने ।
कामं विज्ञायते युक्तिर् न स्त्री-चित्तस्य काचन ।।८९।। [कथा. ३७.२३२]
कामं विज्ञायते युक्तिर् न स्त्री-चित्तस्य काचन ।।८९।। [कथा. ३७.२३२]
अत्यम्बु-पानं कठिनासनं च धातु-क्षयो वेग-विधारणं च ।
दिवा-शयो जागरणं च रात्रौ षड्भिर् नराणां निवसन्ति रोगाः ।।८७।। [विक्रम. २३७]
दिवा-शयो जागरणं च रात्रौ षड्भिर् नराणां निवसन्ति रोगाः ।।८७।। [विक्रम. २३७]
अत्युत्सेकेन महसा साहसाध्यवसायिनाम् ।
श्रीर् आरोहति सन्देहं महताम् अपि भू-भृताम् ।।८४।। [रा.त. ४.५१७]
श्रीर् आरोहति सन्देहं महताम् अपि भू-भृताम् ।।८४।। [रा.त. ४.५१७]
अत्युदात्त-गणेष्व् एषा कृत-पुण्यैः प्ररोपिता ।
शत-शाखी भवत्य् एव यावन्-मात्रापि सत्-क्रिया ।।८३।। [रा.त. ३.३०४]
शत-शाखी भवत्य् एव यावन्-मात्रापि सत्-क्रिया ।।८३।। [रा.त. ३.३०४]
अत्युन्नतिं प्राप्य नरः प्रावारः कीटको यथा ।
स विनश्यत्य् असन्देहम् आहैवम् उशना नृपः ।।८१।। [सं.पा. ५७]
स विनश्यत्य् असन्देहम् आहैवम् उशना नृपः ।।८१।। [सं.पा. ५७]
अथ नित्यम् अनित्यं वा नेह शोचन्ति तद्-विदः ।
नान्यथा शक्यते कर्तुं स्वभावः शोचताम् इति ।।८०।। [भा.पु. ७.२.४९]
नान्यथा शक्यते कर्तुं स्वभावः शोचताम् इति ।।८०।। [भा.पु. ७.२.४९]
अदेश-कालार्थम् अनायति-क्षमं यद् अप्रियं लाघव-कारि चात्मनः ।
विचिन्त्य बुद्ध्या मुहुर् अप्य् अवैम्य् अहं न तद्-वचो हालाहलं हि तद् विषम्� ।।७७।। [पञ्च. ३.११२]
विचिन्त्य बुद्ध्या मुहुर् अप्य् अवैम्य् अहं न तद्-वचो हालाहलं हि तद् विषम्� ।।७७।। [पञ्च. ३.११२]
अदृष्ट-पूर्वान् आदाय भावान् अपरिशङ्कितान् ।
इष्टानिष्टान् मनुष्याणाम् अस्तं गच्छन्ति रात्रयः ।।७८।। [म.भा. १२.१२५१९]
अद्यैव कुरु यच् छ्रेयो वृद्धः सन् किं करिष्यसि ।इष्टानिष्टान् मनुष्याणाम् अस्तं गच्छन्ति रात्रयः ।।७८।। [म.भा. १२.१२५१९]
स्वगात्राण्य् अपि भाराय भवन्ति हि विपर्यये ।।१४३।।
अधरः किसलय-रागः कोमल-विटपानुकारिणौ बाहू ।
कुसुमम् इव लोभनीयं यौवनम् अङ्गेषु संनद्धम् ।।१४४।।
अधर्मेण च यः प्राह यश् चाधर्मेण पृच्छति ।
तयोर् अन्यतरः प्रैति विद्वेषं वाधिगच्छति ।।१४६।।
अध्रुवेण शरीरेण प्रतिक्षण-विनाशिना ।
ध्रुवं यो नार्जयेद् धर्मं स शोच्यो मूढ-चेतनः ।।१४७।।
अध्वा जरा देहवतां पर्वतानां जलं जरा ।
असम्भोगो जरा स्त्रीणां वाक्-शल्यं मनसो जरा ।।१४९।।
अनधिगत-मनोरथस्य पूर्वं६ शत-गुणितेव गता मम त्रियामा ।
यदि तु तव समागमे तथैव प्रसरति सुभ्रु ततः कृती भवेयम् ।।१५०।।
अनध्वन्याः काव्येष्व् अलस-गतयः शास्त्र-गहनेष्व् अदुःखज्ञा वाचां परिणतिषु मूकाः पर-गुणे ।
अनभ्यासेन विद्यानाम् असंसर्गेण धीमताम् ।
अनिग्रहेण चाक्षाणां जायते व्यसनं नृणाम् ।।१५३।।
अनर्थकं विप्रवासं गृहेभ्यः पापैः सन्धिं पर-दाराभिमर्शनम् ।
दैन्यं स्तैन्य्ं पैशुनं मद्य-पानं न सेवते यश् च सुखी सदैव ।।१५५।।
अनर्थम् अर्थतः पश्यन्न् अर्थं चैवाप्य् अनर्थतः ।
इन्द्रियैः प्रसृतो बालः सुदुःखं मन्यते सुखम् ।।१५६।।
अनवाप्यं च शोकेन शरीरं चोपतप्यते ।
अमित्राश् च प्रहृष्यन्ति मा स्म शोके मनः कृथाः ।।१५८।।
अनातुरोत्कण्ठितयोः प्रसिध्यता समागमेनापि रतिर् न मां प्रति ।
परस्पर-प्राप्ति-निराशयोर् वरं शरीर-नाशोऽपि समानुरागयोः ।।१५९।।
अनात्मवान् नय-द्वेषी वर्धयन्न् अरि-सम्पदः ।
प्राप्यापि महद् ऐश्वर्यं सह तेन विनश्यति ।।१६१।।
अनादर�-परो विद्वान् ईहमानः स्थिरां श्रियम् ।
अग्नेः शेषम् ऋणाच् छेषं शत्रोः शेषं न शेषयेत् ।।८६।। [?]
अनादेयं नाददीत परिक्षीणोऽपि पार्थिवः ।अग्नेः शेषम् ऋणाच् छेषं शत्रोः शेषं न शेषयेत् ।।८६।। [?]
न चादेयं समृद्धोऽपि सूक्ष्मम् अप्य् अर्थम् उत्सृजेत् ।।१६२।।
अनादेयस्य चादानाद् आदेयस्य च वर्जनात् ।
दौर्बल्यं ख्याप्यते राज्ञः स प्रेत्येह च नश्यति ।।१६४।।
अनाद्य्-अन्ता तु सा तृष्णा अन्तर्-देह-गता नृणाम् ।
विनाशयति सम्भूता अयोनिज इवानलः ।।१६५।।
अनाम्नाय-मला वेदा ब्राह्मणस्याव्रतं मलम् ।
मलं पृथिव्या वाहीकाः पुरुषस्यानृतं मलम् ।।१६७।।
अनारभ्या भवन्त्य् अर्थाः केचिन् नित्यं तथागताः ।
कृतः पुरुषकारोऽपि भवेद् येषु निरर्थकः ।।१६८।।
अनार्य-वृत्तम् अप्राज्ञम् असूयकम् अधार्मिकम् ।
अनर्थाः क्षिप्रम् आयान्ति वाग्-दुष्टं क्रोधनं तथा ।।१७०।।
अनावृत-नव-द्वार-पञ्जरे विहगानिलः ।
यत् तिष्ठति तद् आश्चर्यं वियोगे तस्य का कथा ।।१७१।।
अनित्ये प्रिय-संवासे संसारे चक्रवद् गतौ ।
पथि संगतम् एवैतद् भ्राता माता पिता सखा ।।१७३।।
अनिर्वाच्यम् अनिर्भिन्नम् अपरिच्छिन्नम् अव्ययम् ।
ब्रह्मेव सुजन-प्रेम दुःख-मूल-निकृन्तनम् ।।१७४।।
अनिर्वेदः श्रियो मूलं चञ्चुर् मे लोह-संनिभा ।
अहो-रात्राणि दीर्घाणि समुद्रः किं न शुष्यति ।।१७६।।
अनिश्चितैर् अध्यवसाय-भीरुभिर् पदे पदे दोष-शतानुदर्शिभिः ।
फलैर् विसंवादम् उपागता गिरः प्रयान्ति लोके परिहास-वस्तुताम् ।।१७७।।
अनिष्ट-सम्प्रयोगाच् च विप्रयोगात् प्रियस्य च ।
मानुष्या मानसैर् दुःखैर् युज्यन्ते अल्प-बुद्धयः ।।१७९।।
अनीर्ष्युर् गुप्त-दारश् च सम्विभागी प्रियंवदः ।
श्लक्ष्णो मधुर-वाक् स्त्रीणां न चासां वशगो भवेत् ।।१८०।।
अनुबन्धं च सम्प्रेक्ष्य विपाकांश् चैव कर्मणाम् ।
उत्थानम् आत्मनश् चैव धीरः कुर्वीत वा न वा ।।१८२।।
अनुबन्धान् अवेक्षेत८ सानुबन्धेषु कर्मसु ।
सम्प्रधार्य च कुर्वीत न वेगेन समाचरेत् ।।१८३।।
अनुयाति न भर्तारं यदि दैवात् कथंचन ।
तथापि शीलं संरक्ष्यं शील-भङ्गात् पतत्य् अधः ।।१८५।।
अनेक-चित्त-मन्त्रस् तु द्वेष्यो भवति मन्त्रिणाम् ।
अनवस्थित-चित्तत्वात् कर्ये तैः स उपेक्ष्यते ।।१८६।।
अन्तर्-दुष्टः क्षमा-युक्तः सर्वानर्थ-करः किल ।
शकुनिः शकटारश् च दृष्टान्ताव् अत्र भूपते ।।१८८।।
अन्तर् ये सततं लुथन्त्य् अगणितास् तान् एव पाथोधरैर् आत्तान् आपततस् तरङ्ग-वलयैर् आलिङ्ग्य गृह्णन्न् असौ ।
व्यक्तं मौक्तिक-रत्नतां जल-कणान् सम्प्रापयत्य् अम्बुधिः प्रायोऽन्येन कृतादरो लघुर् अपि प्राप्तोऽर्च्यते स्वामिभिः ।।१८९।।
अन्त्येषु रेमिरे धीरा न ते मध्येषु रेमिरे ।
अन्त्य-प्राप्तिं सुखं प्राहुर् दुःखम् अन्तरम् अन्त्ययोः ।।१९१।।
अन्यो हि नाश्नाति कृतं हि कर्म स एव कर्ता सुख-दुःख-भागी ।
यत् तेन किञ्चिद् धि कृतं हि कर्म तद् अश्नुते नास्ति कृतस्य नाशः ।।२०१।। [म.भा. ३.?]
अन्योन्य-समुपष्टम्भाद् अन्योन्यापाश्रयेण च ।यत् तेन किञ्चिद् धि कृतं हि कर्म तद् अश्नुते नास्ति कृतस्य नाशः ।।२०१।। [म.भा. ३.?]
ज्ञातयः सम्प्रवर्धन्ते सरसीवोत्पलान्य् उत ।।१९६।।
अन्यो हि नाश्नाति कृतं हि कर्म स एव कर्ता सुख-दुःख-भागी ।
यत् तेन किञ्चिद् धि कृतं हि कर्म तद् अश्नुते नास्ति कृतस्य नाशः ।।१९७।। [म.भा. ३.१३८६८]
अन्योच्छिष्टेषु पात्रेषु भुक्त्वैतेषु महीभुजः ।यत् तेन किञ्चिद् धि कृतं हि कर्म तद् अश्नुते नास्ति कृतस्य नाशः ।।१९७।। [म.भा. ३.१३८६८]
कस्मान् न लज्जाम् अवहञ् शौच-चिन्तां न वा दधुः ।।१९३।।
अन्यो धनं प्रेत-गतस्य भुङ्क्ते वयांसि चाग्निश् च शरीर-धातून् ।
द्वाभ्याम् अयं सह गच्छत्य् अमुत्र पुण्येन पापेन च वेष्ट्यमानः ।।१९४।।
अपकारिणि विस्रम्भं यः करोति नराधमः ।
अनाथो दुर्बलो यद्वन् न चिरं स तु जीवति ।।१९९।। [ह.वं. ११६३]
अनाथो दुर्बलो यद्वन् न चिरं स तु जीवति ।।१९९।। [ह.वं. ११६३]
अपहत्य तमस् तीव्रं यथा भात्य् उदरे रविः ।
तथापहत्य पाप्मानं भाति गङ्गा-जलोक्षितः ।।२०२।। [विक्रम. १८१]
अपां प्रवाहो गाङ्गोऽपि समुद्रं प्राप्य तद्-रसः ।तथापहत्य पाप्मानं भाति गङ्गा-जलोक्षितः ।।२०२।। [विक्रम. १८१]
भवत्य् अवश्यं तद् विद्वान् नाश्रयेद् अशुभात्मकम् ।।२०३।। [का.नी. ५.८]
अपकृत्य बल-स्थस्य दूरस्थोऽस्मीति नाश्वसेत् ।
श्येनानुचरितैर् ह्य् एते निपतन्ति प्रमाद्यतः ।।१७५।।
अपि मन्दत्वम् आपन्नो नष्टो वापीष्ट-दर्शनात् ।
प्रायेण प्राणिनां भूयो दुःख-वेगोऽधिको भवेत् ।।२०५।। [पञ्च. २.१७४]
प्रायेण प्राणिनां भूयो दुःख-वेगोऽधिको भवेत् ।।२०५।। [पञ्च. २.१७४]
अपि मार्दव-भावेन गात्रं संलीय बुद्धिमान् ।
अरिं नाशयते नित्यं यथा वल्ली महा-द्रुमम् ।।२०६।। [हरि. ११६७]
अरिं नाशयते नित्यं यथा वल्ली महा-द्रुमम् ।।२०६।। [हरि. ११६७]
अपुत्रस्य गतिर् नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च ।
तस्मात् पुत्र-मुखं दृष्ट्वा भवेत् पश्चाद् धि तापसः ।।२०८।। [विक्रम. ८५]
तस्मात् पुत्र-मुखं दृष्ट्वा भवेत् पश्चाद् धि तापसः ।।२०८।। [विक्रम. ८५]
अपूर्विणा न कर्तव्यं कर्म लोके विगर्हितम् ।
कृत-पूर्विणस् तु त्यजतो महान् धर्म इति श्रुतिः ।।२०९।। [म.भा.१२.२८३.५]
कृत-पूर्विणस् तु त्यजतो महान् धर्म इति श्रुतिः ।।२०९।। [म.भा.१२.२८३.५]
अप्य् उन्मत्तात् प्रलपतो बालाच् च परिसर्पतः ।
सर्वतः सारम् आदद्याद् अश्मभ्य इव काञ्चनम् ।।२११।। [म.भा. ५]
सर्वतः सारम् आदद्याद् अश्मभ्य इव काञ्चनम् ।।२११।। [म.भा. ५]
अप्रसादोऽनधिष्ठानं देयांश-हरणं च यत् ।
काल-यापोऽप्रतीकारस् तद् वैराग्यस्य कारणम् ।।२१२।। [हि. ३.९०]
काल-यापोऽप्रतीकारस् तद् वैराग्यस्य कारणम् ।।२१२।। [हि. ३.९०]
अप्रियैर् अपि निष्पिष्टैः किं स्यात् क्लेशासहिष्णुभिः ।
ये तद्-उन्मूलने शक्ता जिगीषा तेषु शोभते ।।२१४।। [रा.त. ३.२८३]
ये तद्-उन्मूलने शक्ता जिगीषा तेषु शोभते ।।२१४।। [रा.त. ३.२८३]
अभयस्य हि यो दाता स पूज्यः सततं नृपः ।
सत्रं हि वर्धते तस्य सदैवाभय-दक्षिणम् ।।२१५।। [म.भा. १२]
अभिन्न-वेलौ गम्भीराव् अम्बुराशिर् भवान् अपि ।
असाव् अञ्जन-संकाशस् त्वं तु चामीकर-द्युतिः ।।२१७।। [काव्या. २.१८३]
अभिमानवतां पुंसाम् आत्म-सारम् अजानताम् ।सत्रं हि वर्धते तस्य सदैवाभय-दक्षिणम् ।।२१५।। [म.भा. १२]
अभिन्न-वेलौ गम्भीराव् अम्बुराशिर् भवान् अपि ।
असाव् अञ्जन-संकाशस् त्वं तु चामीकर-द्युतिः ।।२१७।। [काव्या. २.१८३]
अन्धानाम् इव दृश्यन्ते पतनान्ताः प्रवृत्तयः ।।२२१।। अभिमानं श्रियं हन्ति पुरुषस्याल्प-मेधसः ।
गर्भेण दुष्यते कन्या गृह-वासेन च द्विजः ।।२२३।।
अभियुक्तं बलवता दुर्लभं हीन-साधनम् ।
हृत-स्वं कामिनं चोरम् आविशन्ति प्रजागराः ।।२२४।।
अभियोक्ता बली यस्माद् अलब्ध्वा न निवर्तते ।
उपहाराद् ऋते तस्मात् सन्धिर् अन्यो न विद्यते ।।२२६।।
अभिलक्ष्यं स्थिरं पुण्यं ख्यातं सद्भिर् निषेवितम् ।
सेवेत सिद्धिम् अन्विच्छञ् श्लाघ्यं विन्ध्यम् इवेश्वरम् ।।२२७।।
अमित्रं नैव मुञ्चेत ब्रुवन्तं करुणान्य् अपि ।
दुःखं तत्र न कुर्वीत हन्यात् पूर्वापकारिणम् ।।२३०।।
अमित्राद् उन्नतिं प्राप्य नोन्नतोऽस्मीति विश्वसेत् ।
तस्मात् प्राप्योन्नतिं नश्येत् प्रावार इव कीटकः ।।२३१।।
अमित्रो न विमोक्तव्यः कृपणं बह्व् अपि ब्रुवन् ।
कृपा तस्मिन् न कर्तव्या हन्याद् एवापकारिणम् ।।२३३।।
अमित्रो मित्रतां याति मित्रं चापि प्रदुष्यति ।
सामर्थ्य-योगात् कार्याणां तद्-गत्या हि सदा गतिः ।।२३४।।
अभिप्रायं यो विदित्वा तु भर्तुः सर्वाणि कार्याणि करोत्य् अतन्द्रीः ।
वक्ता हितानाम् अनुरक्त आर्यः शक्तिज्ञ आत्मेव हि सोऽनुकम्प्यः ।।२१८।। [म.भा. ५.१३५८]
अभिन्न-वेलौ गम्भीराव् अम्बुराशिर् भवान् अपि ।
असाव् अञ्जन-संकाशस् त्वं तु चामीकर-द्युतिः ।।२१७।। [काव्या. २.१८३]
अभिप्रायं यो विदित्वा तु भर्तुः सर्वाणि कार्याणि करोत्य् अतन्द्रीः ।
वक्ता हितानाम् अनुरक्त आर्यः शक्तिज्ञ आत्मेव हि सोऽनुकम्प्यः ।।२१८।। [म.भा. ५.१३५८]
अमृतं चैव मृत्युश् च द्वयं देहे प्रतिष्ठितम् ।वक्ता हितानाम् अनुरक्त आर्यः शक्तिज्ञ आत्मेव हि सोऽनुकम्प्यः ।।२१८।। [म.भा. ५.१३५८]
मृत्युम् आपद्यते मोहात् सत्येनापद्यतेऽमृतम् ।।२३६।।
Om
Tat Sat
(Continued ...)
(My humble salutations to the lotus feet of Holy Sages of Hindu soil for
the collection)
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