सुभाषित 220
गुणवान् वा परजन: स्वजनो निर्गुणोपि वा निर्गुण: स्वजन: श्रेयान् य: पर: पर एव च
गुणवान शत्रु से भी गुणहीन मित्र अच्छा| शत्रु तो आखिर शत्रु है|
पदाहतं सदुत्थाय मूर्धानमधिरोहति |
स्वस्थादेवाबमानेपि देहिनस्वद्वरं रज: //
स्वस्थादेवाबमानेपि देहिनस्वद्वरं रज: //
जो पैरोंसे कुचलने पर भी उपर उठता है ऐसा मिट्टी का कण अपमान किए जाने पर भी चुप बैठनेवाले व्यक्ति से श्रेष्ठ है |
सा भार्या या प्रियं बू्रते स पुत्रो यत्र निवॄति: |
तन्मित्रं यत्र विश्वास: स देशो यत्र जीव्यते //
तन्मित्रं यत्र विश्वास: स देशो यत्र जीव्यते //
जो मिठी वाणी में बोले वही अच्छी पत्नी है, जिससे सुख तथा समाधान प्रााप्त होता है वही वास्तवीक में पुत्र है, जिस पर हम बीना झीझके संपूर्ण विश्वास कर सकते है वही अपना सच्चा मित्र है तथा जहा पर हम काम करके अपना पेट भर सकते है वही अपना देश है |
सुभाषित क्र. 223
जरा रूपं हरति, धैर्यमाशा, मॄत्यु:प्राणान् , धर्मचर्यामसूया |
क्रोध: श्रियं , शीलमनार्यसेवा , ह्रियं काम: , सर्वमेवाभिमान: //
वॄद्धत्वसे रूपका हरण होता है , आशासे ह्मतॄष्णासे) धैर्यका , मॄत्युसे प्राणका हरण होता है| मत्सरसे धर्माचरण का , क्रोधसे सम्पत्तीका तथा दुष्टोंकी सेवा करनेसे शील का नाश होता है| कामवासनासे लज्जा का तथा अभिमानसे सभी अच्छी चीजोंका अन्त होता है |
विरला जानन्ति गुणान् विरला: कुर्वन्ति निर्धने स्नेहम् |
विरला: परकार्यरता: परदु:खेनापि दु:खिता विरला: //
दुसरोंके गुण पहचाननेवाले थोडे ही है |
निर्धन से नाता रखनेवाले भी थोडे है |
दुसरों के काम मे मग्न हानेवाले थोडे है तथा दुसरों का दु:ख देखकर दु:खी होने वाले भी थोडे है |
आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म |
स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थे: //
आरोग्य, विद्वत्ता, सज्जनोंसे मैत्री, श्रेष्ठ कुल में जन्म, दुसरों के उपर निर्भर न होना यह सब धन नही होते हुए भी पुरूषों का एैश्वर्य है |
क्रोध: श्रियं , शीलमनार्यसेवा , ह्रियं काम: , सर्वमेवाभिमान: //
वॄद्धत्वसे रूपका हरण होता है , आशासे ह्मतॄष्णासे) धैर्यका , मॄत्युसे प्राणका हरण होता है| मत्सरसे धर्माचरण का , क्रोधसे सम्पत्तीका तथा दुष्टोंकी सेवा करनेसे शील का नाश होता है| कामवासनासे लज्जा का तथा अभिमानसे सभी अच्छी चीजोंका अन्त होता है |
विरला जानन्ति गुणान् विरला: कुर्वन्ति निर्धने स्नेहम् |
विरला: परकार्यरता: परदु:खेनापि दु:खिता विरला: //
दुसरोंके गुण पहचाननेवाले थोडे ही है |
निर्धन से नाता रखनेवाले भी थोडे है |
दुसरों के काम मे मग्न हानेवाले थोडे है तथा दुसरों का दु:ख देखकर दु:खी होने वाले भी थोडे है |
आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म |
स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थे: //
आरोग्य, विद्वत्ता, सज्जनोंसे मैत्री, श्रेष्ठ कुल में जन्म, दुसरों के उपर निर्भर न होना यह सब धन नही होते हुए भी पुरूषों का एैश्वर्य है |
सुभाषित 226
कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम् इति ते संशयो मा भूत् राजा कालस्य कारणं काल राजा का कारण है कि राजा काल काÆ इसमे थोडीभी दुविधा नही कि राजाही काल का कारण है
सुभाषित 227
आयुष: क्षण एकोपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते |
नीयते तद् वॄथा येन प्रामाद: सुमहानहो //
सब रत्न देने पर भी जीवन का एक क्षण भी वापास नही मिलता |
ऐसे जीवन के क्षण जो निर्थक ही खर्च कर रहे है वे कितनी बडी गलती कर रहे है
नीयते तद् वॄथा येन प्रामाद: सुमहानहो //
सब रत्न देने पर भी जीवन का एक क्षण भी वापास नही मिलता |
ऐसे जीवन के क्षण जो निर्थक ही खर्च कर रहे है वे कितनी बडी गलती कर रहे है
सुभाषित 228
योजनानां सहस्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका |
आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति //
यदि चिटी चल पडी तो धीरे धीरे वह एक हजार योजनाएं भी चल सकती है |
परन्तु यदि गरूड जगह से नही हीला तो वह एक पग भी आगे नही बढ सकता |
आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति //
यदि चिटी चल पडी तो धीरे धीरे वह एक हजार योजनाएं भी चल सकती है |
परन्तु यदि गरूड जगह से नही हीला तो वह एक पग भी आगे नही बढ सकता |
सुभाषित 229
कन्या वरयते रुपं माता वित्तं पिता श्रुतम् बान्धवा: कुलमिच्छन्ति मिष्टान्नमितरेजना: विवाह के समय कन्या सुन्दर पती चाहती है| उसकी माताजी सधन जमाइ चाहती है| उसके पिताजी ज्ञानी जमाइ चाहते है|तथा उसके बन्धु अच्छे परिवार से नाता जोडना चाहते है| परन्तु बाकी सभी लोग केवल अच्छा खाना चाहते है|
सुभाषित 230
अर्था भवन्ति गच्छन्ति लभ्यते च पुन: पुन: पुन: कदापि नायाति गतं तु नवयौवनम्
घन मिलता है, नष्ट होता है| (नष्ट होने के बाद) फिरसे मिलता है| परन्तु जवानी एक बार निकल जाए तो कभी वापस नही आती|
आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशॄङखला |
यया बद्धा: प्राधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्गुवत् //
आशा नामक एक विचित्र और आश्चर्यकारक शॄंखला है |
इससे जो बंधे हुए है वो इधर उधर भागते रहते है तथा इससे जो मुक्त है वो पंगु की तरह शांत चित्त से एक ही जगह पर खडे रहते है |
शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा यस्तु क्रियावान् पुरूष: स विद्वान् |
सुचिन्तितं चौषधमातुराणां न नाममात्रेण करोत्यरोगम् //
यया बद्धा: प्राधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्गुवत् //
आशा नामक एक विचित्र और आश्चर्यकारक शॄंखला है |
इससे जो बंधे हुए है वो इधर उधर भागते रहते है तथा इससे जो मुक्त है वो पंगु की तरह शांत चित्त से एक ही जगह पर खडे रहते है |
शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा यस्तु क्रियावान् पुरूष: स विद्वान् |
सुचिन्तितं चौषधमातुराणां न नाममात्रेण करोत्यरोगम् //
शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद भी लोग मूर्ख रहते है |
परन्तु जो कॄतीशील है वही सही अर्थ से विद्वान है |
किसी रोगी के प्राती केवल अच्छी भावनासे निश्चित किया गया औषध रोगी को ठिक नही कर सकता |
वह औषध नियमानुसार लेनेपर ही वह रोगी ठिक हो सकता है |
परन्तु जो कॄतीशील है वही सही अर्थ से विद्वान है |
किसी रोगी के प्राती केवल अच्छी भावनासे निश्चित किया गया औषध रोगी को ठिक नही कर सकता |
वह औषध नियमानुसार लेनेपर ही वह रोगी ठिक हो सकता है |
सुभाषित 233
वॄत्तं यत्नेन संरक्ष्येद् वित्तमेति च याति च |
अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वॄत्ततस्तु हतो हत: //
अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वॄत्ततस्तु हतो हत: //
विदूरनीति
सदाचार की मनुष्यने प्रयन्तपूर्व रक्षा करनी चाहिए , वित्त तो आता जाता रहता है |
धनसे क्षीण मनुष्य वस्तुत: क्षीण नही , बल्कि सद्वर्तनहीन मनुष्य हीन है |
धनसे क्षीण मनुष्य वस्तुत: क्षीण नही , बल्कि सद्वर्तनहीन मनुष्य हीन है |
सुभाषित 234
परस्य पीडया लब्धं धर्मस्योल्लंघनेन च आत्मावमानसंप्राप्तं न धनं तत् सुखाय वै
महाभारत
दुसरोंको दु:ख देकर , धर्मका उल्लंघन करकर या खुद का अपमान सहकर मिले हुए धन से सुख नही प्राप्त होता
जानामि धर्मं न च मे प्रावॄत्ति: |
जानाम्यधर्मं न च मे निवॄत्ति: //
जानाम्यधर्मं न च मे निवॄत्ति: //
दुर्योधन कहते है "ऐसा नही की धर्म तथा अधर्म क्या है यह मैं नही जानता था |
परन्तू ऐसा होने पर भी धर्म के मार्ग पर चलना यह मेरी प्रावॄत्ती नही बन पायी और अधर्म के मार्ग से मैं निवॄत्त भी नही हो सका |
" अकॄत्वा परसन्तापं अगत्वा खलसंसदं अनुत्सॄज्य सतांवर्तमा यदल्पमपि तद्बहु
परन्तू ऐसा होने पर भी धर्म के मार्ग पर चलना यह मेरी प्रावॄत्ती नही बन पायी और अधर्म के मार्ग से मैं निवॄत्त भी नही हो सका |
" अकॄत्वा परसन्तापं अगत्वा खलसंसदं अनुत्सॄज्य सतांवर्तमा यदल्पमपि तद्बहु
दूसरोंको दु:ख दिये बिना ; विकॄती के साथ अपाना संबंध बनाए बिना ; अच्छों के साथ अपने सम्बंध तोडे बिना ; जो भी थोडा कुछ हम धर्म के मार्ग पर चलेंगे उतना पर्याप्त है |
सुभाषित 237
परोपदेशे पांडित्यं सर्वेषां सुकरं नॄणाम् धर्मे स्वीयमनुष्ठानं कस्यचित् सुमहात्मन:
दूसरोंको उपदेश देकर अपना पांडित्य दिखाना बहौत सरल है| परन्तु केवल महान व्यक्तिही उसतरह से (धर्मानुसार)अपना बर्ताव रख सकता है|
सुभषित 238 अमित्रो न विमोक्तव्य: कॄपणं व*णपि ब्राुवन् कॄपा न तस्मिन् कर्तव्या हन्यादेवापकारिणाम्
शत्रु अगर क्षमायाचना करे, तो भी उसे क्षमा नही करनी चाहिये| वह अपने जीवित को हानि पहुचा सकता है यह सोचके उसको समाप्त करना चाहिये| सुभषित 239 नेह चात्यन्तसंवास: कर्हिचित् केनचित् सह |
राजन् स्वेनापि देहेन किमु जायात्मजादिभि: //
राजन् स्वेनापि देहेन किमु जायात्मजादिभि: //
श्रीमद्भागवत
हे राजा ह्मधॄतराष्ट)्र इस जगत में कभीभी , किसीका किसीसे चिरंतन संबंध नहीं होता |
अपना खुदके देहसे तक नहीं , तो पत्नी और पुत्र की बात तो दूर //
इंद्रियाणि पराण्याहु: इंद्रियेभ्य: परं मन: |
मनसस्तु परा बुद्धि: यो बुद्धे: परतस्तु स: //
गीता 3|42
मनसस्तु परा बुद्धि: यो बुद्धे: परतस्तु स: //
गीता 3|42
इंद्रियों के परे मन है मन के परे बुद्धि है और बुद्धि के भी परे आत्मा है |
सुभाषित 241
वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत्कालविपर्यय: अथैवमागते काले भिन्द्याद् घटमिवाश्मनि
जब काल विपरीत हो, तब शत्रुको भी कन्धोंपे उठाना चाहिये| अनुकूल काल आनेपर उसे जैसे घट पथर पे फोड जाता है, वैसे नष्ट करना चाहिये|
सुभाषित 242
उष्ट्राणां च विवाहेषु गीतं गायन्ति गर्दभा: परस्परं प्रशंसन्ति अहो रुपमहो ध्वनि:
उंटोके विवाहमे गधे गाना गा रहे हैं| दोनो एक दूसरेकी प्रशंसा कर रहे हैं वाह क्या रुप है (उंट का), वाह क्या आवाज है (गधेकी)| वास्तव मे देखा जाए तो उंटों मे सौंदर्य के कोई लक्षण नही होते, न की गधोंमे अच्छी आवाजके| परन्तु कुछ लोगोंने कभी उत्तम क्या है यही देखा नही होता| ऐसे लोग इस तरह से जो प्रशंसा करने योग्य नही है, उसकी प्रशंसा करते हैं
आपूर्यमाणमचलप्रातिष्ठं समुद्रमाप: प्राविशन्ति यद्वत् |
तद्वत् कामा यं प्राविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी //
गीता 2|70
तद्वत् कामा यं प्राविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी //
गीता 2|70
जो व्यक्ती समय समय पर मन में उत्पन्न हुइ आशाओं से अविचलित रहता हैर् जैसे अनेक नदीयां सागर में मिलने पर भी सागर का जल नही बढता, वह शांत ही रहता हैर् ऐसे ही व्यक्ती सुखी हो सकते है |
मैत्री करूणा मुदितोपेक्षाणां| सुख दु:ख पुण्यापुण्य विषयाणां| भावनातश्चित्तप्रासादनम्| पातञ्जल योग 1|33
आनंदमयता, दूसरे का दु:ख देखकर मन में करूणा, दूसरे का पुण्य तथा अच्छे कर्म समाज सेवा आदि देखकर आनंद का भाव, तथा किसी ने पाप कर्म किया तो मन में उपेक्षा का भाव 'किया होगा छोडो' आदि प्रातिक्रियाएँ उत्पन्न होनी चाहिए|
सुभाषित क्र. 245
न प्रहॄष्यति सन्माने नापमाने च कुप्यति |
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत: //
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत: //
मनुस्मॄति
जो सम्मान से गर्वित नहीं होते , अपमान से क्रोधित नहीं होते क्रोधित होकर भी जो कठोर नहीं बोलते, वे ही श्रेष्ठ साधु है |
हर्षस्थान सहस्राणि भयस्थान शतानि च |
दिवसे दिवसे मूढं आविशन्ति न पंडितम् //
दिवसे दिवसे मूढं आविशन्ति न पंडितम् //
मूर्ख मनुष्य के लिए प्राति दिन हर्ष के सौ कारण होते है तथा दु:ख के लिए सहस्र कारण| परन्तु पंडितों के मन का संतुलन ऐसे छोटे कारणों से नही बिगडता|
एका केवलमर्थसाधनविधौ सेना शतेभ्योधिका नन्दोन्मूलन दॄष्टवीर्यमहिमा बुद्धिस्तु मा गान्मम //
Background: Chanakya has uttered the above sentences.
After Chanakya and Chandragupta established the 'Maurya' dynasty kingdom
(defeating the Nand dynasty king), there were some difference of opinions
between Chanakya and other ministers of the Kingdom.
जिन्हे छोडकर जाना था वे चले गए| जो छोड कर जाना चाहते है वे भी चले जाए कोइ चिंता की बात नही| परन्तू इप्सित प्रााप्त करने में जो सैंकडो सेनाओं से भी अधिक बलवान है और नन्द साम्राज्य के निर्मूलन के कार्य में जिसके प्राताप को दुनीया ने देखा है वह केवल मेरी बुद्धि मुझे छोडकर न जाए|
सुभाषित क्र. 248
दीर्घा वै जाग्रतो रात्रि: दीर्घं श्रान्तस्य योजनम् |
दीर्घो बालानां संसार: सद्धर्मम् अविजानताम् //
रातभर जागनेवाले को रात बहुत लंबी मालूम होती है |
जो चलकर थका है, , उसे एक योजन ह्मचार मील ) अंतर भी दूर लगता है |
सद्धर्म का जिन्हे ज्ञान नही है उन्हे जिन्दगी दीर्घ लगती है |
दीर्घो बालानां संसार: सद्धर्मम् अविजानताम् //
रातभर जागनेवाले को रात बहुत लंबी मालूम होती है |
जो चलकर थका है, , उसे एक योजन ह्मचार मील ) अंतर भी दूर लगता है |
सद्धर्म का जिन्हे ज्ञान नही है उन्हे जिन्दगी दीर्घ लगती है |
सुभाषित क्र. 249
देहीति वचनद्वारा देहस्था पञ्च देवता: |
तत्क्षणादेव लीयन्ते र्धीह्र्रीश्र्रीकान्र्तिकीर्तय: //
‘दे’ इस शब्द के साथ , याचना करने से देहमें स्थित पांच देवता
तत्क्षणादेव लीयन्ते र्धीह्र्रीश्र्रीकान्र्तिकीर्तय: //
‘दे’ इस शब्द के साथ , याचना करने से देहमें स्थित पांच देवता
बुद्धी, , लज्जा , लक्ष्मी , कान्ति , और कीर्ति उसी क्षण देह छोडकर जाती है |
सुभषित 250 यद्यत् परवशं कर्मं तत् तद् यत्नेन वर्जयेत् यद्यदात्मवशं तु स्यात् तत् तत् सेवेत यत्नत: जिस काम मै दुसरोंका सहाय्य लेना पडे, ऐसे काम को टालो| (परन्तु) जिसमे दुसरोंका सहाय्य न लेना पडे, ऐसे काम शीघ्रातासे पुरे करो|
सुभाषित 251
सर्वं परवशं दु:खं सर्वमात्मवशं सुखम् एतद्विद्यात् समासेन लक्षणं सुखदु:खयो: दुसरोंपे निर्भर रहना सर्वथा दुखका कारण होता है| आत्मनिर्भर होना सर्वथा सुखका कारण होता है| सारांश, सुख–दु:ख के ये कारण ध्यान मे रखें| यस्य भार्या गॄहे नास्ति साध्वी च प्रिायवादिनी |
अरण्यं तेन गन्तव्यं यथाऽरण्यं तथा गॄहम् //
जिस घर में गॄहिणी साध्वी प्रावॄत्ती की न हो तथा मॄदु भाषी न हो ऐसे घर के गॄहस्त ने घर छोड कर वन में जाना चाहिए क्यों की उसके घर में तथा वन में कोइ अंतर नही है ! अकॄत्यं नैव कर्तव्य प्रााणत्यागेऽपि संस्थिते |
न च कॄत्यं परित्याज्यम् एष धर्म: सनातन: //
जो कार्य करने योग्य नही है इअच्छा न होने के कारणउ वह प्रााण देकर भी नही करना चाहिए |
तथा जो काम करना है इअपना कर्तव्य होने के कारणउ वह काम प्रााण देना पडे तो भी करना नही छोडना चाहिए |
अरण्यं तेन गन्तव्यं यथाऽरण्यं तथा गॄहम् //
जिस घर में गॄहिणी साध्वी प्रावॄत्ती की न हो तथा मॄदु भाषी न हो ऐसे घर के गॄहस्त ने घर छोड कर वन में जाना चाहिए क्यों की उसके घर में तथा वन में कोइ अंतर नही है ! अकॄत्यं नैव कर्तव्य प्रााणत्यागेऽपि संस्थिते |
न च कॄत्यं परित्याज्यम् एष धर्म: सनातन: //
जो कार्य करने योग्य नही है इअच्छा न होने के कारणउ वह प्रााण देकर भी नही करना चाहिए |
तथा जो काम करना है इअपना कर्तव्य होने के कारणउ वह काम प्रााण देना पडे तो भी करना नही छोडना चाहिए |
सुभाषित 254
ध्यायतो विषयान् पुंस: संगस्तेषूपजायते |
संगात् संजायते काम: कामात् क्रोधोऽभिजायते //
भगवद्गीता 2|62 विषयों का ध्यान करने से उनके प्रति आसक्ति हो जाती है यह आसक्ति ही कामना को जन्म देती है और कामना ही क्रोध को जन्म देती है |
संगात् संजायते काम: कामात् क्रोधोऽभिजायते //
भगवद्गीता 2|62 विषयों का ध्यान करने से उनके प्रति आसक्ति हो जाती है यह आसक्ति ही कामना को जन्म देती है और कामना ही क्रोध को जन्म देती है |
सुभाषित 254
नात्यन्त गुणवत् किंचित् न चाप्यत्यन्तनिर्गुणम् उभयं सर्वकार्येषु दॄष्यते साध्वसाधु वा ऐसा कोई भी कार्य नही है जो सर्वथा अच्छा है| ऐसा कोई भी कार्य नही जो सर्वथा बुरा है| अच्छे और बुरे गुण हर एक कार्य मै होते ही है| एकत: क्रतव: सर्वे सहस्त्रवरदक्षिणा |
अन्यतो रोगभीतानां प्रााणिनां प्रााणरक्षणम् //
महाभारत एक ओर विधीपूर्वक सब को अच्छी दक्षिणा दे कर किया गया यज्ञ कर्म तथा दूसरी ओर दु:खी और रोग से पिडीत मनुष्य की सेवा करना यह दोनों भी कर्म उतने ही पुण्यप्राद है |
मातॄवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत् |
आत्मवत्सर्वभूतेषु य: पश्यति स पश्यति //
जो व्यक्ति धार्मिक प्रावॄत्ती का है वो परस्त्री को माते समान परद्रव्य को माटी समान तथा अन्य सभी प्रााणिमात्रोंको स्वयं के समान मानता है |
यही धर्म के सही लक्षण है |
अन्यतो रोगभीतानां प्रााणिनां प्रााणरक्षणम् //
महाभारत एक ओर विधीपूर्वक सब को अच्छी दक्षिणा दे कर किया गया यज्ञ कर्म तथा दूसरी ओर दु:खी और रोग से पिडीत मनुष्य की सेवा करना यह दोनों भी कर्म उतने ही पुण्यप्राद है |
मातॄवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत् |
आत्मवत्सर्वभूतेषु य: पश्यति स पश्यति //
जो व्यक्ति धार्मिक प्रावॄत्ती का है वो परस्त्री को माते समान परद्रव्य को माटी समान तथा अन्य सभी प्रााणिमात्रोंको स्वयं के समान मानता है |
यही धर्म के सही लक्षण है |
सुभाषित 257
य: स्वभावो हि यस्यास्ति स नित्यं दुरतिक्रम: श्वा यदि क्रियते राजा तत् किं नाश्नात्युपानहम् जिसक जो स्वभाव होता है, वह हमेशा वैसाही रहता है| कुत्तेको अगर राजा भी बनाया जाए, तो वह अपनी जूतें चबानेकी आदत नही भूलता|
सुभाषित 258
नात्युच्चशिखरो मेरुर्नातिनीचं रसातलम् व्यवसायद्वितीयानां नात्यपारो महोदधि: जो मनुष्य उद्योग का सहाय्य लेता है (अपने स्वयं के प्रयत्नोंपे निर्भर होता है), उसको पर्बत की चोटी उंची नही, पॄथ्वी का तल नीचा नही, और महासागर अनुल्लंघ्य नही
Om
Tat Sat
(Continued ...)
(My humble salutations to the lotus feet of Holy Sages of Hindu soil for
the collection)
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